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प्रवचन-सारोद्धार
२५३
गइ होइ चउप्पयारा जाईवि य पंचहा मुणेयव्वा। पंच य हुंति सरीरा अंगोवंगाई तिन्नेव ॥१२६७ ॥ छस्संघयणा जाणसु संठाणावि य हवंति छच्चेव । वन्नाईण चउक्कं अगुरुलहु वघाय परघायं ॥१२६८ ॥ अणुपुव्वी चउभेया उस्सासं आयवं च उज्जोयं । सुह असुहा विहगगई तसाइवीसं च निम्माणं ॥१२६९ ॥ तित्थयरेणं सहिया सत्तट्ठी एव हुंति पयडीओ। संमामीसेहिं विणा तेवन्ना सेस कम्माणं ॥१२७० ॥ एवं वीसुत्तरसयं बंधे पयडीण होइ नायव्वं । बंधण-संघायावि य सरीरगहणेण इह गहिया ॥१२७१ ॥ बंधणभेया पंच उ संघायावि य हवंति पंचेव। पण वन्ना दो गंधा पंच रसा अट्ठ फासा य ॥१२७२ ॥ दस सोलस छव्वीसा एया मेलिवि सत्तसठ्ठीए। तेणउई होइ तओ बंधणभेया उ पन्नरस ॥१२७३ ॥ वेउव्वाहारोरालियाण सगतेयकम्मजुत्ताणं । नव बंधणाणि इयरदुसहियाणं तिन्नि तेसिपि ॥१२७४ ॥ सव्वेहिवि छूढेहिं तिगअहियसयं तु होइ नामस्स। इय उत्तरपयडीणं कम्मट्ठग अट्ठवन्नसयं ॥१२७५ ॥
-गाथार्थएक सौ अट्ठावन उत्तर प्रकृति-ज्ञानावरण के पाँच भेद, दर्शनावरण के नौ भेद, वेदनीय के दो भेद, मोहनीय के अट्ठावीस भेद, आयु के चार भेद, गोत्र के दो भेद, अन्तराय के पाँच भेद तथा नामकर्म के एक सौ तीन भेद हैं। इस प्रकार आठ कर्म के कुल मिलाकर एक सौ अट्ठावन उत्तरभेद होते हैं ।।१२५१-५२॥
जिसके प्रभाव से जीव का मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यव एवं केवलज्ञान आवृत हो जाता है वह कर्म 'ज्ञानावरण' है ।।१२५३ ।।
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन एवं केवलदर्शन का आवारक कर्म भी चार प्रकार का है। निद्रा, प्रचला-प्रचला, प्रचला, निद्रानिद्रा, और स्त्यानर्द्धि ये पाँच जीव के दर्शन गुण के आवारक होने से दर्शनावरण है। इस प्रकार दर्शनावरण के नौ भेद हुए। सुख-दुःख के निमित्त रूप वेदनीय भी साता-असाता के भेद से द्विविध है ।।१२५४-५५ ।।
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