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प्रवचन-सारोद्धार
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९. शंख
नाना प्रकार के नृत्य, नाटक, धर्म-अर्थ-काम व मोक्ष से सम्बन्धित काव्य अथवा संस्कृत-प्राकृत, अपभ्रंश व विविध भाषा में रचित गद्य-पद्य-गेय व चम्पूरूप चतुर्विध काव्यों की रचना विधि इस निधि में वर्णित है। अनेक प्रकार के वादित्रों को बनाने की विधि भी इसमें बताई गई है। अन्यमते-पूर्वोक्त सभी पदार्थ नौ
निधियों में से साक्षात् उत्पन्न होते हैं ॥१२२७॥ निधियों का स्वरूप
प्रत्येक निधि ८-८ चक्र पर प्रतिष्ठित है। इन निधियों की लंबाई, चौड़ाई व ऊँचाई क्रमश: १२, ९ व ८ योजन है। इनका निवास स्थान गंगा नदी का मुख है। पाताल से भरत विजय करने के पश्चात् जब चक्रवर्ती अपने नगर की ओर लौटता है तब ये निधियाँ पाताल से निकलकर चक्रवर्ती का स्वत: अनुगमन करती हैं। ये निधियाँ सुवर्णमय हैं। इनके कपाट वैडूर्यमणि से निर्मित व समतल हैं। ये विविधरनों से परिपूर्ण चन्द्र, सूर्य व चक्र के आकारों से चिह्नित हैं। कहीं 'अणुवम' ऐसा पाठ है। उसका अर्थ है कि—निधियों का स्वरूप अनुपमेय है। कहीं पर 'अणुसमयचयणोववत्तीय' ऐसा भी पाठ है। जिसका अर्थ है कि—प्रतिसमय इन निधियों में से पुद्गलों का पूरण-गलन होता रहता है। स्थानांग में निधियों का वर्णन करते हुए 'अणुसमजुगबाहुवयणा य' ऐसा पाठ है। इसका अर्थ है कि 'समतल' यज्ञ के खंभे की तरह गोल तथा लंबी-लंबी द्वार शाखायें जिनके मुख पर हैं। उन निधियों के निधि सदृश नाम वाले, एक पल्योपम की आयु वाले अधिष्ठाता देव हैं। ये निधियाँ उनका सहज आश्रय स्थान हैं।
प्रभूत धन-रत्न के समूह से समृद्ध ये निधियाँ चक्रवर्ती बनने के पश्चात् सभी चक्रवर्तियों के वश में आ जाती हैं ॥१२२८-३१ ॥
|२१४ द्वार:
जीव-संख्या
नमिउं नेमि एगाइजीवसंखं भणामि समयाओ। चेयणजुत्ता एगे भवत्थसिद्धा दुहा जीवा ॥१२३२ ॥ तस थावरा य दुविहा तिविहा थी'नपुंसगविभेया। नारयतिरियनरामरगइभेयाओ चउब्भेया ॥१२३३ ॥ अहव तिवेयअवेयगसरूवओ वा हवंति चत्तारि। एगबितिचउपणिंदिय रूवा पंचप्पयारा ते ॥१२३४ ॥
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