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________________ द्वार २०५ २१८ |२०५ द्वार: आहार-उच्छ्वास सरिरेणोयाहारो तयाय फासेण रोमआहारो। पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होइ नायव्वो ॥११८० ॥ ओयाहारा जीवा सव्वे अपजत्तगा मुणेयव्वा। पज्जत्तगा य लोमे पक्खे हुंति भइयव्वा ॥११८१ ॥ रोमाहारा एगिंदिया य नेरइयसुरगणा चेव।। सेसाणं आहारो रोमे पक्खेवओ चेव ॥११८२ ॥ ओयाहारा मणभक्खिणो य सव्वेऽवि सुरगणा होति । सेसा हवंति जीवा लोमाहारा मुणेयव्वा ॥११८३ ॥ अपज्जत्ताण सुराणऽणाभोगनिवत्तिओ य आहारो। पज्जत्ताणं मणभक्खणेण आभोगनिम्माओ ॥११८४ ॥ जस्स जइ सागराइं ठिइ तस्स य तेत्तिएहिं पक्खेहिं। ऊसासो देवाणं वाससहस्सेहिं आहारो ॥११८५ ॥ दसवाससहस्साइं जहन्नमाऊ धरति जे देवा। तेसि चउत्थाहारो सत्तहिं थोवेहिं ऊसासो ॥११८६ ॥ दसवाससहस्साइं समयाई जाव सागरं ऊणं । दिवसमुहत्तपुहुत्ता आहारूसास सेसाणं ॥११८७ ॥ -गाथार्थजीवों का आहार और श्वास ग्रहण-शरीर द्वारा ओजाहार, स्पर्श द्वारा लोम आहार एवं कवल के द्वारा प्रक्षेप आहार होता है ।।११८० ॥ सभी अपर्याप्त जीव ओज-आहारी हैं। सभी पर्याप्ता जीव लोम-आहारी हैं तथा कवल आहार वालों की भजना है॥११८१ ॥ एकेन्द्रिय, नारक तथा देवता लोमाहारी हैं। शेष सभी जीव लोमाहारी और प्रक्षेपाहारी हैं ॥११८२॥ सभी देव ओजाहारी एवं मनोभक्षी हैं। शेष सभी जीव लोमाहारी होते हैं ॥११८३ ।। अपर्याप्त देवों का आहार अनाभोग निर्मित होता है तथा पर्याप्त देवों का आहार मनोभक्षणरूप होने से आभोग निर्मित है ॥११८४ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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