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प्रवचन-सारोद्धार
२१७
देव और देवियों के उत्पत्ति स्थान
• देवता—सर्वार्थसिद्ध तक उत्पन्न होते हैं। • देवियाँ—ईशान देवलोक तक उत्पन्न होती हैं। • ईशान से ऊपर के देवों को जब काम की जागृति होती है, तब ईशान की अपरिगृहीता
देवियाँ वहाँ जाती हैं। देवियों का गमनागमन सहस्रार तक ही होता है। इससे ऊपर के देवताओं में किसी भी प्रकार का प्रविचार (कामक्रीड़ा) नहीं है। बारहवें देवलोक से ऊपर देवों का भी गमनागमन नहीं होता, कारण नीचे के देवताओं की शक्ति ऊपर जाने की नहीं होती और कारण के अभाव में ऊपर के देवता नीचे नहीं आते। ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानवासी देव परमात्मा के कल्याणकों का उत्सव आदि करने के लिये भी नहीं आते। अपने स्थान पर रहकर ही भक्ति करते हैं। वे अपने संशय का निराकरण या प्रश्न का समाधान अवधि-ज्ञान के द्वारा समाधान के रूप में व्यवस्थित, परमात्मा के मनोवर्गणा के पुद्गलों की रचना को देखकर कर लेते हैं। इस प्रकार उनके गमनागमन का कोई कारण नहीं है ॥११७७-७८ ।।
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२०४ द्वार:
सिद्धिगति-अन्तर
एक्कसमओ जहन्नो उक्कोसेणं तु जाव छम्मासा। विरहो सिद्धिगईए उव्वट्टणवज्जिया नियमा ॥११७९ ॥
-गाथार्थसिद्धिगति का विरह-सिद्धिगमन का जघन्य विरहकाल एक समय का है तथा उत्कृष्ट विरहकाल छ: महीने का है। सिद्धिगमन के पश्चात् उद्वर्तना नहीं होती ॥११७९ ।।
-विवेचन • जघन्य से....१ समय, एक आत्मा के सिद्ध होने के पश्चात् जघन्य से १ समय के पश्चात्
ही दूसरा आत्मा सिद्ध होता है। • उत्कृष्ट से....छ: महीने बाद दूसरा सिद्ध होता है। • सिद्धिगमन के पश्चात् कोई भी जीव पुन: संसार में नहीं आता क्योंकि जन्म-मरण के कारणभूत
उनके संपूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं। कहा है कि—“बीज जल जाने पर जैसे अङ्कर पैदा नहीं हो सकता वैसे, कर्मरूपी बीज के जल जाने पर आत्मा का जन्म-मरण नहीं होता ॥११७९ ॥"
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