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________________ २१४ २०० द्वार : उववायविरहकालो एसो जह वण्णिओ य देवेसु । उव्वट्टणावि एवं सव्वेसि होइ विन्नेया ॥ ११७२ ॥ -गाथार्थ देवों का मरण-विरहकाल - उपपात विरह काल की तरह ही देवों का मरण विरहकाल भी समझना चाहिये ॥ ११७२ ।। -विवेचन उपपात के विरहकाल की तरह मृत्यु का विरह काल है। उसका काल परिमाण उपपात - विरह काल की तरह ही होता है ॥ ११७२ ॥ २०१ द्वार : भवनपति निकाय में (ii) व्यन्तर निकाय में (iii) ज्योतिष् निकाय में (iv) प्रथम देवलोक से ८वें तक । Jain Education International उद्वर्तना-विरह एक्को व दो व तिन्नि व संखमसंखा य एगसमएणं । उववज्जंतेवइया उव्वट्टंतावि एमेव ॥ ११७३ ॥ द्वार २००-२०१ -गाथार्थ देवों के उपपात एवं उद्वर्तन की संख्या - देवों के जघन्य उपपात की संख्या एक-दो या तीन है । उत्कृष्ट उपपात संख्या संख्याता व असंख्याता है । उद्वर्तन की संख्या उपपातवत् ही समझना चाहिये ।। ११७३ ।। -विवेचन- सामान्य और विशेष दो प्रकार का जन्म-मरण-संख्या For Private & Personal Use Only जघन्य से एक समय में १-२-३ जन्मते और मरते हैं । उत्कृष्ट से संख्याता और असंख्याता जन्मते और मरते हैं 1 www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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