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प्रवचन - सारोद्धार
आणयपाणयकप्पे देवा पासंति पंचमी पुढवीं । तं चेव आरणच्चुय ओहिणाणेण पाति ॥११६२ ॥ छट्ठि हिट्ठिममज्झिमगेविज्जा सत्तमिं च उवरिल्ला । संभिन्नलोगनालिं पासंति अणुत्तरा देवा ॥११६३ ॥ एएसिमसंखेज्जा तिरियं दीवा य सागरा चेव । बहुययरं उवरिमया- उड्डुं च सकप्पथूभाई ॥११६४॥ संखेज्जजोयणाई खलु देवाणं अद्धसागरे ऊ । तेण परमसंखेज्जा जहन्नयं पन्नवीसं तु ॥११६५ ॥ भवणवइवणयराणं उड्डुं बहुओ अहो य सेसाणं । जोइसिनेरइयाणं तिरियं ओरालिओ चित्तो ॥ ११६६ ॥
-गाथार्थ
देवों का अवधिज्ञान – सौधर्म तथा ईशान देवलोक के देवता प्रथम नरक तक, सनत्कुमार और महेन्द्र देवलोक के देव द्वितीय नरक तक, ब्रह्मलोक एवं लांतक देवलोक के देव तृतीय नरक तक, शुक्र और सहस्त्रार के देव चतुर्थ नरक तक तथा आनत- प्राणत- आरण और अच्युत के देव पंचम नरक तक अवधिज्ञान से देखते हैं ।
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अधस्तन एवं मध्यम ग्रैवेयक - त्रिकवर्ती देव छट्ठी नरक तक, ऊपरवर्ती ग्रैवेयक - त्रिकवासी देव सातवीं नरक तक तथा अनुत्तरवासी देव संपूर्ण लोकनाड़ी को अपने अवधिज्ञान से देखते हैं ।।११६१-११६३ ।।
पूर्वोक्त देव तिर्यक् दिशा में अपने अवधिज्ञान से असंख्यात द्वीप - समुद्र पर्यन्त देखते हैं । ऊपरवर्ती देवों का अवधिज्ञान उत्तरोत्तर बहु- बहुतर होता । ऊर्ध्व अपने-अपने देवलोक के स्तूप पर्यन्त देखते हैं ।। ११६४ ॥
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अर्ध सागर से कुछ न्यून आयु वाले देवों का अवधिज्ञान संख्याता योजन परिमाण है। उससे अधिक आयु वाले देवों का अवधिज्ञान असंख्याता योजन परिमाण है । जघन्य अवधिज्ञान पच्चीस योजन परिमाण है । भवनपति एवं व्यंतर देवों का अवधिज्ञान ऊर्ध्व दिशा की ओर अधिक होता है । वैमानिक देवों का अवधिज्ञान अधोदिशा की ओर अधिक होता है। ज्योतिषी और नारकों का अवधिज्ञान तिर्यक् दिशा की ओर अधिक होता है तथा औदारिक शरीरवालों का अवधिज्ञान विविध प्रकार का होता है ।११६५-६६ ॥
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