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________________ २०८ द्वार १९७-१९८ कप्पे सणंकुमारे माहिंदे चेव बंभलोए य । एएसु पम्हलेसा तेण परं सुक्कलेसाओ ।११६० ॥ -गाथार्थदेवों की लेश्या-भवनपति और व्यन्तर देवों में कृष्ण, नील, कापोत और तेज-चार लेश्यायें हैं। ज्योतिषी, सौधर्म एवं ईशान देवों में तेजो लेश्या है। सनत्कुमार, माहेन्द्र एवं ब्रह्मदेवलोक में पद्मलेश्या तथा ऊपरवर्ती देवलोक में शुक्ल लेश्या है॥११५९-६० ।। -विवेचन१. भवनपति, व्यन्तर कृष्ण, नील और कापोत २. परमाधामी कृष्ण और नील लेश्या ३. ज्योतिषी, सौधर्म और ईशान तेजो लेश्या ४. सनत्, महेन्द्र, ब्रह्म पद्म लेश्या ५. छठे देवलोक से अनुत्तर विमानपर्यन्त शुक्ल लेश्या • भाव-लेश्या की अपेक्षा से छ: ही लेश्या देवों में घटती हैं। • लेश्याएँ पूर्व देवों की अपेक्षा उत्तर देवों में विशुद्ध, विशुद्धतर होती जाती हैं। जैसे—छडे देवलोक से अनुत्तर विमान पर्यन्त देवों में एक शुक्ल लेश्या ही होती है, किन्तु वह छठे देवलोक की अपेक्षा सातवें देवलोक में विशुद्ध होती है। इससे आठवें में अधिक विशुद्धतर होती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर समझना है। यहाँ देवों की जो प्रति-नियत लेश्यायें बतायी गई हैं, वे भावलेश्या के हेतुभूत कृष्ण, नील, पीत आदि द्रव्य रूप हैं, न कि भाव लेश्या रूप। क्योंकि भाव-लेश्या अनवस्थित होती है। ये लेश्यायें बाह्य वर्ण रूप भी नहीं है। कारण, देवों के वर्ण अलग-अलग बताये गये हैं। यदि ये लेश्यायें बाह्य-वर्ण रूप होती तो देवों का वर्ण प्रज्ञापना आदि में लेश्या से अलग बताने की आवश्यकता नहीं रहती। यह चर्चा १७८३ (नरक में लेश्या) द्वार में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है। भावलेश्यायें सभी देवनिकाय में यथासंभव छ: ही होती हैं। पू. हरिभद्रसूरि जी ने तत्त्वार्थ-टीका में कहा है कि-देवों की सभी निकाय में भाव की अपेक्षा छ: ही लेश्यायें हैं ॥११५९-६० ।। - १९८ द्वार : अवधिज्ञान सक्कीसाणा पढमं दोच्चं च सणंकुमार माहिंदा । तच्चं च बंभलंतग सुक्कसहस्सारय चउत्थि ॥११६१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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