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द्वार १९०
३. संख्यातावर्ष की आयु वाले संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच मरकर चारों गति में उत्पन्न होते हैं। देव में इनका उपपात आठवें सहस्रार देवलोक तक ही होता है।
४. विकलेन्द्रिय, मरकर संख्याता वर्ष वाले मनुष्य और तिर्यंच में ही जाते हैं।
५. युगलिक खेचर व अन्तद्वीप में उत्पन्न होने वाले नर-तिर्यंच, इन का नियम है कि वे मरकर अपनी स्थिति से समान अथवा हीन स्थिति वाले देव में ही उत्पन्न होते हैं। अत: भवनपति और व्यन्तर में ही उत्पन्न होते हैं। कारण ऊपर के देवों की जघन्य स्थिति भी इनकी उत्कृष्ट स्थिति से अधिक होती है। युगलिक खेचर व अन्तर द्वीप में उत्पन्न नर-तिर्यंचों की उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यातवां भाग मात्र है, जबकि ज्योतिष् सौधर्म व ईशान देवलोक की जघन्य स्थिति क्रमश: पल्योपम का आठवां भाग तथा एक पल्योपम है।
६. तीस अकर्मभूमि एवं सुषम-सुषमादि तीनों आरों के भरत-ऐरवत क्षेत्रवर्ती युगलिक नर-तिर्यंच मरकर ईशान देवलोक तक जाते हैं क्योंकि ऊपर के देवों की जघन्य स्थिति दो सागर की है जबकि इन युगलिकों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम से अधिक नहीं होती ॥११११-१११४ ।।
७. तापस अर्थात् वनवासी, कन्द-मूल फलाहारी बालतपस्वी मरकर उत्कृष्ट रूप से ज्योतिष देवलोक तक जाते हैं। सामान्यत: चारों गति में जाते हैं।
८. चरक-परिव्राजक मरकर उत्कृष्ट से ब्रह्मलोक तक जाते हैं। भिक्षा से जीवन निर्वाह करने वाले त्रिदण्डी, चरक परिव्राजक कहलाते हैं। सामान्यत: चारों गति में जाते हैं।
परिव्राजक = कपिल मुनि के अनुयायी और चरक = मात्र लंगोटधारी ॥१११५ ॥
९. मिथ्यादृष्टि भव्य या अभव्य श्रमण, उत्कृष्ट से ग्रैवेयक तक (सम्यक्त्व व चारित्र के भाव से शून्य होने पर भी क्रिया के प्रभाव से ग्रैवेयक तक) जाते हैं। जघन्य से भवनपति में जाते हैं। यह देव गति की अपेक्षा से समझना। अन्यथा तो यथाध्यवसाय अन्य गतियों में भी जाते हैं ॥१११६ ॥
१०. अविराधक छद्मस्थ संयत, उत्कृष्ट से सर्वार्थसिद्ध तक तथा जघन्य से सौधर्म देवलोक तक जाते हैं।
११. अविराधक देशविरति श्रावक, उत्कृष्ट से बारहवें देवलोक तक, जघन्य से सौधर्म देवलोक तक जाते हैं।
• जिसने संयम और व्रतों का पालन अखंड रूप से किया हो, ऐसे साधु व श्रावक की जघन्य
स्थिति क्रमश: २ से ९ पल्योपम व एक पल्योपम की है ॥१११७ ॥ १२. चौदह पूर्वी, उत्कृष्टत: सर्वार्थसिद्ध तक व जघन्यत: लान्तक देवलोक तक जाते हैं। १३. क्षीणकर्मा चौदहपूर्वी व अन्य मनुष्य, सिद्धिगति में जाते हैं ॥१११८ ।। १४. विराधक साधु व श्रावक, जघन्य से भवनपति तक जाते हैं ॥१११९ ॥ • तापस, चरक, परिव्राजक आदि जघन्यत: व्यन्तर में जाते हैं। • प्रज्ञापना के अनुसार तापस आदि का जघन्यत: उपपात भवनपति में होता है। विराधक साधु
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