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________________ प्रवचन - सारोद्धार सेसाण तवसाईण जहन्नओ वंतरेसु उववाओ । भणिओ जिणेहिं सो पुण नियकिरियठियाण विनेओ ॥११२० ॥ -गाथार्थ एकेन्द्रिय आदि की गति — एकेन्द्रिय जीव अयुगलिक मनुष्य- तिर्यंच में जाते हैं । असंज्ञी तिर्यंच अयुगलिक मनुष्य, तिर्यंच एवं प्रथम नरक में जाते हैं। संमूर्च्छिम तिर्यंच भवनपति और व्यन्तर में जाते हैं। वहाँ उनकी उत्पत्ति पल्योपम के असंख्यातवें भाग की आयु वालों में ही होती है ।। ११११-१२ ॥ १९१ उत्कृष्टतः पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच सहस्रार देवलोक तक जाते हैं तथा नीचे सातवीं नरक तक जाते हैं। विकलेन्द्रिय जीव अयुगलिक मनुष्य और तिर्यंच में उत्पन्न होते हैं ।। १११३ ॥ असंख्याता वर्ष की आयु वाले मनुष्य-तिर्यंच, ज्योतिष् देवों को छोड़कर, समान अथवा हीन आयु वाले ईशानदेवलोक में देव बनते हैं ।। १११४ ।। उत्कृष्टतः तापस ज्योतिष् देव तक जाते हैं । चरक और परिव्राजक ब्रह्मदेवलोक तक उत्पन्न होते हैं ।१११५ ।। जिनेश्वर देव के द्वारा कथित व्रत, उत्कृष्ट तप-क्रिया के द्वारा भव्य और अभव्य जीव उत्कृष्टतः ग्रैवेयक तक तथा जघन्यतः भवनपति में जाते हैं ।। १११६ ॥ छद्मस्थ मुनिओं की गति उत्कृष्टतः सर्वार्थसिद्ध विमान है एवं श्रावकों की उत्कृष्ट गति अच्युत देवलोक की है ।। १११७ ।। जघन्यतः चौदह पूर्वधरों की गति लांतक देवलोक तथा उत्कृष्ट गति सर्वार्थसिद्ध विमान की है । कर्मक्षय होने पर मोक्ष भी जाते हैं ।। १११८ ।। अविराधक साधु एवं श्रावक जघन्यतः सौधर्मदेवलोक में उत्पन्न होते हैं। व्रतभंग होने पर व्यन्तर आदि में भी जाते हैं ।। १११९ ।। शेष तापस आदि की जघन्य गति व्यन्तरदेव की है। पूर्वोक्त गतियाँ अपने-अपने आचार का पालन करने में उपयुक्त आत्माओं की अपेक्षा से जिनेश्वर देवों ने कही है ॥ ११२० ।। -विवेचन १. पृथ्वी, अप्, वनस्पति मरकर संख्याता आयुष्य वाले मनुष्य और तिर्यंच में जाते हैं । तेउ-वायु मरकर मनुष्य में नहीं जाते। कहा है कि सातवीं नरक के नैरइये, तेउ, वायु तथा असंख्याता वर्ष की आयु वाले नर- तिर्यंच मरकर मनुष्य नहीं बनते । Jain Education International २. असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच मरकर संख्याता आयुष्य वाले नर- तिर्यंच में तथा प्रथम नरक, भवनपति और व्यन्तर में जाते हैं । इससे आगे नहीं जा सकते, कारण ये जीव उत्कृष्ट से भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग की आयु वाले देव में तथा नरक में ही जाते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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