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________________ प्रवचन-सारोद्धार १५३ 108885654:580200 1888888888883 १६४ द्वार: अकर्मभूमि हेमवयं हरिवासं देवकुरू तह य उत्तरकुरूवि । रम्मय एरन्नवयं इय छब्भूमी उ पंचगुणा ॥१०५४ ॥ एया अकम्मभूमीउ तीस सया जुअलधम्मजणठाणं । दसविहकप्पमहद्दुमसमुत्थभोगा पसिद्धाओ ॥१०५५ ॥ -गाथार्थतीस अकर्मभूमि-हिमवन्त, हरिवास, देवकुरु, उत्तरकुरु, रम्यकवास और ऐरण्यवत-इन छ: भूमिओं को पाँच से गुणा करने पर तीस अकर्मभूमि होती हैं। ये सतत युगलिकों का निवास स्थान हैं तथा दशविध कल्पवृक्षों से उत्पन्न भोगों के कारण यह भूमि भोगभूमि के नाम से प्रसिद्ध है ।।१०५४-५५ ॥ -विवेचनअकर्मभूमि कृषि, व्यापार आदि से रहित अथवा श्रुतधर्म और चारित्रधर्म की आराधना से विहीन क्षेत्र अकर्मभूमि है। वहाँ युगलिक मनुष्य और तिर्यंच होते हैं तथा उनके जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति दस प्रकार के कल्पवृक्षों द्वारा होती है। हेमवत = ५ उत्तरकुरु = हरिवर्ष = ५ रम्यक D३० देवकुरु = ५ ऐरण्यवत = ।।१०५४-१०५५ ॥ کک کے १६५ द्वार: मद 3886226300268805563 जाइ कुल रूव बल सुय तव लाभिस्सरिय अट्ठ मयमत्तो। एयाई चिय बंधइ असुहाई बहुं च संसारे ॥१०५६ ॥ -गाथार्थआठ प्रकार के मद–१. जाति २. कुल ३. रूप ४. बल ५. श्रुत ६. तप ७. लाभ और ८. ऐश्वर्य-इन आठ मदों से उन्मत्त जीव बहुविध अशुभकर्मों का बंधन करके संसार में परिभ्रमण करता है ।।१०५६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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