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________________ १५४ द्वार १६५-१६६ : ::: : : -::- : -विवेचन १. जातिमद ५. श्रुतमद २. कुलमद ६. तपमद ३. रूपमद ७. लाभमद ४. बलमद ८. ऐश्वर्यमद • जाति आदि आठ मदों से उन्मत्त आत्मा जन्मान्तर में इन आठों से हीन बनते हैं तथा दीर्घ काल तक इस संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। जाति = माता से सम्बन्धित । कुल = पिता से सम्बन्धित उग्र, भोग आदि कुल । रूप = शारीरिक सौन्दर्य । बल = सामर्थ्य । श्रुत = अनेक शास्त्रों का अवबोध । तप = अनशनादि । लाभ = इच्छित वस्तु की प्राप्ति । ऐश्वर्य = प्रभुत्व ॥१०५६ ॥ १६६ द्वार: प्राणातिपात-भेद भू जल जलणानिल वण बि ति चउ पंचिंदिएहिं नव जीवा। मणवयणकाय गुणिया हवंति ते सत्तवीसंति ॥१०५७ ॥ एक्कासीई सा करणकारणाणुमइताडिया होइ। सच्चिय तिकालगुणिया दुन्नि सया होंति तेयाला ॥१०५८ ॥ -गाथार्थप्राणातिपात के २४३ भेद-१. पृथ्वी २. जल ३. अग्नि ४. वायु ५. वनस्पति ६. द्वीन्द्रिय ७. त्रीन्द्रिय ८. चतुरिन्द्रिय तथा ९. पञ्चेन्द्रिय-इन नौ को मन-वचन और काया से गुणा करने पर सत्तावीस भेद होते हैं। पूर्वोक्त सत्तावीस भेदों को करना-कराना और अनुमोदन करना-इन तीन से गुणा करने पर इक्यासी भेद हुए। इक्यासी को तीन काल से गुणा करने पर प्राणातिपात के २४३ भेद होते हैं ॥१०५७-५८॥ -विवेचन पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, इन ९ जीवों की ३ करण (करना-कराना और अनुमोदन), ३ योग वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, (मन-वचन और काया) से हिंसा ९ x ३ = २७ x ३ = ८१ चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय | इसे तीन काल से सम्बन्धित करने पर (भूत, भविष्य और वर्तमान) ८१ x ३ = २४३ हिंसा के भेद होते हैं। ॥१०५७-५८॥ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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