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एक-एक करके समस्त परमाणुओं को भोग लेता है तो वह द्रव्य पुद्गल परावर्त कहलाता है । जब आकाश के एक-एक प्रदेश में मरण करके समस्त लोकाकाश के प्रदेशों में मर चुकता है, तब एक क्षेत्र पुद्गल-परावर्त कहलाता है । इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिये । वास्तव में जब जीव अनादिकाल से इस संसार में परिभ्रमण कर रहा है तो अब तक एक भी परमाणु ऐसा नहीं बचा है, जिसे इसने न भोगा हो, आकाश का एक भी प्रदेश ऐसा बाकी नहीं है, जहाँ यह मरा न हो, उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल का एक भी ऐसा समय बाकी नहीं है, जिसमें यह न मरा हो और ऐसा एक भी कषाय स्थान बाकी नहीं है, जिसमें यह न मरा हो । प्रत्युत उन परमाणु, प्रदेश, समय और कषाय स्थानों को यह जीव अनेक बार अपना चुका है। उसी को दृष्टि में रखकर द्रव्य पुद्गल परावर्त आदि नामों से काल का विभाग कर दिया है । जो पुद्गल परावर्त जितने काल में होता है उतने काल के परिमाण को उस पुद्गल परावर्त के नाम से पुकारा जाता है । यद्यपि द्रव्य पुद्गल परावर्तन के सिवाय अन्य किसी भी परावर्त पुद्गल का परावर्तन नहीं होता, क्योंकि क्षेत्र पुद्गल परावर्त में क्षेत्र का, काल पुद्गल परावर्त में काल का और भाव पुद्गल परावर्त में भाव का परावर्तन होता है, किन्तु पुद्गल परावर्तन का काल अनन्त उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी काल के बराबर बतलाया है। क्षेत्र, काल और भाव परावर्त का काल भी अनन्त उत्सर्पिणी अनन्त अवसर्पिणी होता है, अत: इन परावर्तों की भी पुद्गलपरावर्त संज्ञा रख दी है ॥ १०५० -१०५२ ।।
१६३ द्वार :
कर्मभूमि
भरहाइ विदेहाई एरवयाइं च पंच पत्तेयं ।
भन्नंति कम्मभूमी धम्मजोग्गा उपन्नरस ॥ १०५३ ॥
-गाथार्थ
पन्द्रह कर्मभूमि – भरत क्षेत्र, महाविदेह क्षेत्र एवं ऐरवत क्षेत्र प्रत्येक पाँच-पाँच होने से धर्म के योग्य कर्मभूमियाँ पन्द्रह होती हैं ॥ १०५३ ॥
-विवेचन
कर्मभूमि
= जहाँ कृषि, व्यापार आदि होते हैं अथवा जहाँ श्रुतधर्म और चारित्र - धर्म की आराधना होती है । व्यावहारिक और धार्मिक क्रिया प्रधान भूमि कर्मभूमि कहलाती है ।
भरत
= ५
ऐरवत महाविदेह = ५
१५ कर्म भूमि
= ५ १ भरत
२ भरत
२ भरत
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५ भरत
१ ऐरावत
२ ऐरव
२ ऐरवत
५ ऐरवत
१ महाविदेह
२ महाविदेह
२ महाविदेह
५ महाविदेह
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द्वार १६२-१६३
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जंबुद्वीप में धातकी खंड में अर्ध पुष्कर में
॥ १०५३ ॥ www.jainelibrary.org