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प्रवचन-सारोद्धार
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कायस्थिति असंख्यात गुणा है। क्योंकि उत्कृष्ट से एक जीव की कायस्थिति असंख्याता उत्सर्पिणी अवसर्पिणी प्रमाण है। एक जीव की कायस्थिति की अपेक्षा संयम स्थान व अनुभाग बंध के स्थान असंख्यात गुणा है, क्योंकि एक जीव एक कायस्थिति में असंख्याता स्थितिबंध करता है और एक स्थिति-बंध में असंख्याता अनुभागबंध के स्थान हैं। संयम स्थान व अनुभाग बंध के स्थान संख्या में समान है यह बताने के लिये यहाँ उनका ग्रहण किया गया। संयम स्थान का स्वरूप आगे कहेंगे।
प्रश्न–अनुभाग बंध के स्थान का क्या अर्थ है?
उत्तर–जहाँ जीव ठहरता है वह स्थान है। अनुभाग बंध का अर्थ है रसबंध । अर्थात् कषाय सहित किसी एक अध्यवसाय विशेष से गृहीत पुद्गलों का विवक्षित एक समय में बद्ध रस का परिमाण । वे अनुभाग बंध के स्थान असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या के बराबर हैं। कारण में कार्य के उपचार की अपेक्षा अनुभागबंध के स्थानों (रस) के उत्पादक काषायिक अध्यवसाय विशेष भी अनुभागबंध के स्थान कहलाते हैं।
सूक्ष्म पुद्गल परावर्त का सरलता से अवबोध कराने के अतिरिक्त बादर पुद्गल परावर्त का अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। चारों सूक्ष्म पुद्गल परावर्त में से भी जहाँ कहीं सूक्ष्म पुद्गल परावर्त की चर्चा है वहाँ क्षेत्र पुद्गल परावर्त का ही ग्रहण किया गया है। जैसे जीवाभिगम में क्षेत्रमार्गणा के संदर्भ में कहा है कि-सादि सांत मिथ्यादृष्टि जीव जघन्य से अन्तर्महत, उत्कृष्ट से अनन्त उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी तथा क्षेत्र की अपेक्षा देशोन अर्धपुद्गल परावर्त तक संसार में रहता है। इससे प्राय: यह सिद्ध होता है कि जहाँ विशेष निर्देश नहीं हैं, वहाँ पुद्गल परावर्त से क्षेत्र पुद्गल परावर्त का ही ग्रहण किया जाता है। तत्त्व बहुश्रुतगम्य है।
जैन वाङ्मय में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का बड़ा महत्त्व है। किसी भी विषय की चर्चा तब तक पूर्ण नहीं समझी जाती जब तक उसमें उस विषय का वर्णन द्रव्य, क्षेत्र वगैरह की अपेक्षा से न किया गया हो । यहाँ परावर्तन का प्रकरण है। परिवर्त का अर्थ होता है—परिणमन अर्थात् उलटफेर, रद्दोबदल इत्यादि । कहावत प्रसिद्ध है कि यह संसार परिवर्तनशील या परिणमनशील है। उसी परिवर्त या परिवर्तन का वर्णन यहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से किया है। द्रव्य से यहाँ पुद्गल द्रव्य का ग्रहण किया है, क्योंकि एक तो प्रत्येक परिवर्त के साथ ही पुद्गल शब्द लगा हुआ है और उसके ही द्रव्य पुद्गल परिवर्त वगैरह चार भेद बतलाये हैं। दूसरे जीव के परिवर्तन या संसार परिभ्रमण का कारण एक तरह से पुद्गल द्रव्य ही है, संसारदशा में उसके बिना जीव रह ही नहीं सकता। अस्तु, उस पुद्गल का सबसे छोटा अणु-परमाणु ही यहाँ द्रव्य पद से अभीष्ट है । वह परमाणु आकाश के जितने भाग में समाता है उसे प्रदेश कहते हैं और वह प्रदेश, क्षेत्र अर्थात् लोकाकाश का ही, क्योंकि जीव लोकाकाश में ही रहता है, एक अंश है। पुद्गल का एक परमाणु आकाश के एक प्रदेश से उसी के समीपवर्ती दूसरे प्रदेश में जितने समय में पहुँचता है, उसे समय कहते हैं। यह काल का सबसे छोटा हिस्सा है। भाव से यहाँ अनुभागबन्ध के कारणभूत जीव के कषायरूप भाव लिये गये हैं। इन्हीं द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के परिवर्तन को लेकर चार परिवर्तनों की कल्पना की गई है। जब जीव पदल के
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