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________________ १५० है । परन्तु अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के बीतने पर जब कभी अवसर्पिणी के दूसरे समय में ही मरता है, तब उस समय का ग्रहण किया जाता है। इस प्रकार तीसरे चौथे आदि समयों में मरण करके जितने समय में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के समस्त समयों में मरण कर चुकता है, उस काल को 'सूक्ष्म काल पुद्गल परावर्त' कहते हैं ॥ १०४८-१०४९ ।। ७. बादर भाव पुद्गल परावर्त - तरतम भेद को लिये हुए अनुभाग- बंधस्थान असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या के बराबर है। उन अनुभाग बंध स्थानों में से एक-एक अनुभाग बंध स्थान में क्रम से या अक्रम से मरण करते-करते जीव जितने समय में समस्त अनुभाग-बंध स्थानों में मरण कर चुकता है, उतने समय को बादर भावपुद्गल परावर्त कहते हैं । द्वार १६२ ८. सूक्ष्म भाव पुद्गल परावर्त - सबसे जघन्य अनुभाग- बंधस्थान में वर्तमान कोई जीव मरा, उसके बाद उस स्थान के अनन्तरवर्ती दूसरे अनुभाग बंध स्थान में वह जीव मरा, उसके बाद उसके अनन्तरवर्ती तीसरे अनुभाग बंध स्थान में मरा। इस प्रकार क्रम से जितने समय में समस्त अनुभाग बंध स्थानों में जीव मरण कर लेता है, वह काल सूक्ष्म भाव पुद्गल परावर्त कहलाता है । यहाँ पर भी कोई जीव सबसे जघन्य अनुभाग बंध स्थान में मरण करके, उसके बाद अनन्तकाल बीत जाने पर भी जब प्रथम अनुभाग बंध स्थान के अनन्तरवर्ती दूसरे अनुभाग बंध स्थान में मरण करता है, तभी वह मरण गणना में लिया जाता है । किन्तु अक्रम से होने वाले अनंतानंत मरण भी गिनती में नहीं आते। इसी तरह कालान्तर में द्वितीय अनुभागबंध स्थान के अनन्तरवर्ती तीसरे अनुभाग बंध स्थान में जब मरण करता है तो वह मरण गिनती में आता है। इस प्रकार बादर व सूक्ष्म पुद्गलपरावर्तों का स्वरूप जानना चाहिये । • अनुभाग बंध के स्थान का परिमाप अनुभाग बंध के स्थान का परिमाप जानने से पूर्व उस परिमाप की इकाई क्या है, यह जानना आवश्यक है । अतः सर्वप्रथम इसे ही बताते हैं । 1 सूक्ष्म तेऊकाय में एक समय में असंख्याता पृथ्विकायिक जीव उत्पन्न होते हैं । यहाँ असंख्याता का अर्थ है असंख्याता लोक के आकाश प्रदेशों की राशितुल्य । प्रवेश का अर्थ है विजातीय जीवों का अन्य जातीय जीवों के रूप में उत्पन्न होना । भगवती में प्रवेश शब्द की यही व्याख्या की गई है । पृथ्वी आदि अन्यकाय तथा बादर तेऊकाय से निकलकर सूक्ष्म तेऊकाय में उत्पन्न होने वाले जीव ही यहाँ ग्रहण किये गये हैं, पर जो जीव पहिले ही सूक्ष्म तेऊकाय में थे और मरकर पुन: उसी में उत्पन्न हुए हों ऐसे जीवों का यहाँ ग्रहण नहीं होता, कारण वे सूक्ष्म तेऊकाय में पहिले ही प्रविष्ट हो चुके थे । अतः एक समय में उत्पन्न सूक्ष्म अग्निकाय के जीव सब से अल्प हैं। उनकी अपेक्षा पूर्वोत्पन्न सभी अग्निकाय के जीव असंख्यात गुणा अधिक है । क्योंकि सूक्ष्म अग्निकाय जीव की आयु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती है और एक समय में असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण सूक्ष्म अग्निकाय के जीव उत्पन्न होते हैं, अत: सिद्ध है कि एक समय में उत्पन्न अग्निकाय जीवों की अपेक्षा पूर्वोत्पन्न सूक्ष्म अग्निकाय के जीव असंख्यातगुणा अधिक हैं। सभी सूक्ष्म अग्निकाय के जीवों की अपेक्षा प्रत्येक जीवों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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