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________________ प्रवचन-सारोद्धार १४९ जब वह लोकाकाश के समस्त प्रदेशों में क्रम-उत्क्रम से मर चुकता है तो उतने काल को बादर क्षेत्र पुद्गल परावर्त कहते हैं ॥१०४४ ।। ४. सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त—कोई जीव भ्रमण करते-करते आकाश के किसी एक प्रदेश में मरण करके पुन: उस प्रदेश के समीपवर्ती दूसरे प्रदेश में मरण करता है, पुन: उसके निकटवर्ती तीसरे प्रदेश में मरण करता है। इस प्रकार अनन्तर-अनन्तर प्रदेश में क्रमश: मरण करते-करते जब समस लोकाकाश के प्रदेशों में मरण कर लेता है, तब सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त होता है। इन दोनों क्षेत्र-पुद्गलपरावर्तों में केवल इतना अन्तर है कि बादर में तो क्रम का विचार नहीं किया जाता, उसमें व्यवहित प्रदेश में मरण करने पर भी यदि वह प्रदेश पूर्व स्पृष्ट नहीं है तो उसका ग्रहण होता है। अर्थात् वहाँ क्रम से या बिना क्रम से समस्त प्रदेशों में मरण कर लेना ही पर्याप्त समझा जाता है। किन्तु सूक्ष्म में समस्त प्रदेशों में क्रम से ही मरण करना चाहिये। अक्रम से जिन प्रदेशों में मरण होता है उनकी गणना नहीं की जाती। इससे स्पष्ट है कि पहले से दूसरे में समय बहुत अधिक होता है। सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त के सम्बन्ध में एक बात और भी ज्ञातव्य है। वह यह कि एक जीव की जघन्य अवगाहना लोक के असंख्यातवें भाग की बतलाई है। अत: यद्यपि एक जीव लोकाकाश के एक प्रदेश में नहीं रह सकता, तथापि किसी देश में मरण करने पर उस देश का कोई एक प्रदेश आधार मान लिया जाता है। अत: यदि उस विवक्षित प्रदेश से दूरवर्ती किन्हीं प्रदेशों में जीव मरण करता है तो वे प्रदेश गणना में नहीं लिये जाते। किन्तु अनन्तकाल बीत जाने पर भी जब कभी विवक्षित प्रदेश के अनन्तर जो प्रदेश है, उसी में मरण करता है, तो वह गणना में लिया जाता है। किन्हीं-किन्हीं का मत है कि लोकाकाश के जितने प्रदेशों में जीव मरण करता है, वे सभी प्रदेश ग्रहण किये जाते हैं, उनका मध्यवर्ती कोई विवक्षित प्रदेश ग्रहण नहीं किया जाता ॥१०४५-१०४६ ।। ५. बादर काल पुद्गल परावर्त—जितने समय में एक जीव अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के सब समयों में क्रम या बिना क्रम के मरण कर चुकता है, उतने काल को बादर-काल पुद्गल परावर्त कहते हैं ॥१०४७ ॥ ६. सूक्ष्मकाल पुद्गल परावर्त—कोई जीव किसी विवक्षित अवसर्पिणी काल के पहले समय में मरा, पुन: उसके दूसरे समय में मरा, पुन: तीसरे समय में मरा। इस प्रकार क्रमश: अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के सब समयों में जब मरण कर चुकता है तो उसे सूक्ष्म काल पुद्गल परावर्त कहते हैं। यहाँ भी समयों की गणना क्षेत्र की तरह क्रमश: ही की जाती है, व्यवहित की गणना नहीं की । आशय यह है कि कोई जीव अवसर्पिणी के प्रथम समय में मरा, उसके बाद एक समय कम बीस कोटा कोटी सागर के बीत जाने पर जब पुन: अवसर्पिणी काल प्रारम्भ हो, उस समय यदि वह जीव उसके दूसरे समय में मरे तो वह द्वितीय समय गणना में लिया जाता है। मध्य के शेष समयों में उसकी मृत्यु होने पर भी वे गणना में नहीं लिये जाते। किन्तु यदि वह जीव उक्त अवसर्पिणी के द्वितीय समय में मरण को प्राप्त न हो, किन्तु अन्य समय में मरण करे तो उसका भी ग्रहण नहीं किया जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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