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प्रवचन-सारोद्धार
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एक समय उत्पन्न सूक्ष्म अग्निकाय जीवों की अपेक्षा पूर्वोत्पन्न अग्निकाय जीव असंख्यगुणा अधिक हैं। उनसे उनकी कायस्थिति असंख्यगुण हैं। कायस्थिति की अपेक्षा संयमस्थान एवं रसबंध के स्थान असंख्यगुण हैं ।।१०५१ ।।
उन सभी रसबंध के स्थानों को जीव जितने समय में क्रम या अक्रम से स्पर्श करते हुए मरता है वह समय विशेष बादर भाव पुद्गल परावर्त कहलाता है। सूक्ष्मभाव पुद्गल परावर्त में उन स्थानों की स्पर्शना क्रमपूर्वक होती है ।।१०५२ ।।
-विवेचनपुद्गलपरावर्त = अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी मिलकर एक पुद्गल परावर्त होता है। • अतीतकाल अनन्त पुद्गल परावर्त प्रमाण है। अतीत की अपेक्षा भविष्य काल अनन्तगुणा ___ अधिक है।
प्रश्न- भगवती सूत्र में कहा है कि अनागत काल अतीत की अपेक्षा एक समय ही अधिक है। वैसे अतीत व अनागत काल अनादि अनन्त होने से समान हैं पर प्रश्न का मध्यकालीन समय बच जाता है। वह अविनष्ट होने से अतीत में समाविष्ट नहीं हो सकता, पर अनागत में ही समाविष्ट होता है। अत: अतीत की अपेक्षा अनागत काल समयाधिक होता है। यहाँ आप उसे अनन्तगुणा अधिक कैसे कह रहे हो? आपके इस कथन का आगम से विरोध नहीं होगा क्या?
उत्तर-जैसे अनागत काल का अन्त नहीं है वैसे अतीत काल की आदि नहीं है। इस प्रकार अन्तहीनता की दृष्टि से दोनों समान होने से आगम में दोनों को तुल्य कहा गया है। यदि समय संख्या की अपेक्षा वर्तमान में दोनों को समान मान लिया जाय तो आपत्ति होगी। यथा-एक समय बीतने के बाद अनागत काल अतीत की अपेक्षा एक समय न्यून होगा, दो समय बीतने के बाद दो समय न्यून होगा। न्यनता का क्रम प्रतिसमय चलता रहेगा। एक समय ऐसा होगा कि अनागत काल क्षीण हो जायेगा। ऐसा कदापि नहीं होता अत: मानना होगा कि समय संख्या की अपेक्षा अतीत अनागत काल कदापि समान नहीं है। पर अतीत की अपेक्षा अनागत काल अनन्त गुणा अधिक है और इसी कारण अनन्तकाल बीतने पर भी वह क्षीण नहीं होता। वर्तमान काल एक समय रूप होने से उसका अलग से प्रतिपादन नहीं किया ॥१०३९ ॥
• पूर्वोक्त पुद्गल परावर्त के चार भेद हैं। द्रव्य पुद्गल परावर्त, क्षेत्र पुद्गल परावर्त, काल पुद्गल
परावर्त तथा भाव पुद्गल परावर्त । इनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं-बादर और सूक्ष्म ।
इस प्रकार पुद्गल परावर्त के कुल आठ भेद हुए ॥१०४० ॥ । यह लोक अनेक प्रकार की पुद्गलवर्गणाओं से भरा हुआ है । वर्गणा का अर्थ है समानजातीय
पुद्गलों का समूह । उन वर्गणाओं में आठ वर्गणाएँ ग्रहण योग्य बतलाई हैं, अर्थात् वे जीवों के द्वारा ग्रहण की जाती हैं। जीव उन्हें ग्रहण करके उनसे अपना शरीर, वचन, मन आदि की रचना करता है। वे वर्गणायें हैं-औदारिक ग्रहण योग्य वर्गणा, वैक्रिय ग्रहण योग्य
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