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________________ १४६ द्वार १६२ एग समयंमि लोए सुहुमागणिजिया उ जे उ पविसंति। ते हुंतऽसंखलोयप्पएसतुल्ला असंखेज्जा ॥१०५० ॥ तत्तो असंखगुणिया अगणिक्काया उ तेसि कायठिई । तत्तो संजमअणुभागबंधठाणाणिऽसंखाणि ॥१०५१ ॥ ताणि मरतेण जया पुट्ठाणि कमुक्कमेण सव्वाणि । भावंमि बायरो सो सुहुमो य कमेण बोद्धव्वो ॥१०५२॥ -गाथार्थपुद्गल परावर्तन का स्वरूप-अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी मिलकर एक पुद्गल परावर्तन होता है। ऐसी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी भूतकाल में अनन्त हुई और भविष्य में अनन्तगुणा होगी॥१०३९ ॥ जिनेश्वर परमात्मा के शासन में पुद्गल परावर्तन के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार हैं। चारों ही पुद्गल परावर्तन बादर और सूक्ष्म के भेद से दो-दो प्रकार के हैं॥१०४० ।। औदारिक, वैक्रिय, तैजस्, कार्मण, भाषा, श्वासोच्छ्वास और मन के रूप में सर्व पुद्गलों को स्पर्श करके जितने समय में जीव विसर्जित करता है, वह कालखण्ड बादर द्रव्य पुद्गल परावर्तन कहलाता है॥१०४१॥ ___ अथवा औदारिक, वैक्रिय, तैजस् और कार्मण शरीर के रूप में सर्वद्रव्यों को जीव ग्रहण करके जितने समय में विसर्जित करता है, वह काल बादर पुद्गल परावर्तन कहलाता है ॥१०४२ ।। किसी एक शरीर के द्वारा अनुक्रम से सभी पुद्गलों का स्पर्श करके विसर्जित करने में जितना समय लगता है वह द्रव्य सूक्ष्म पुद्गल परावर्त कहलाता है॥१०४३ ।। इस जगत में जीव लोकाकाश के सर्व प्रदेशों को क्रम या उत्क्रम से जितने समय में स्पर्श करता है वह काल परिमाप बादर क्षेत्र पुद्गल परावर्त है ॥१०४४ ।। कोई जीव किसी एक क्षेत्र प्रदेश को आश्रय करके मरा हो और पुन: उसी के समीपस्थ दूसरे प्रदेश में मरे-इस प्रकार तरतम योग से जितने समय में सर्व आकाश प्रदेशों को अपने मरण के द्वारा स्पर्श करता है वह कालखण्ड सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त कहलाता है ।।१०४५-४६ ।। जितने समय में एक जीव अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के सभी समय को क्रम या उत्क्रम से अपनी मृत्यु के द्वारा स्पर्श करता है वह काल विशेष बादर काल पुद्गल परावर्त कहलाता है।॥१०४७ ।। अवसर्पिणी के प्रथम समय में मरने के पश्चात् पुन: उसके समीपस्थ दूसरे समय में मरना-इस प्रकार अनुक्रम से उत्सर्पिणी के सभी समयों में मृत्यु का वरण करना-इसमें जितना समय लगता है वह समय विशेष सूक्ष्मकाल पुद्गल परावर्त कहलाता है ।।१०४८-४९ ।। इस लोक में एक समय में जितने जीव सूक्ष्म अग्निकाय में प्रवेश करते हैं वे असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशतुल्य असंख्याता होते हैं ।।१०५० ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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