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________________ १४४ ३. सुषम - दुःषमा — सुख-दुःखरूप काल। यह अवसर्पिणी का तृतीय भाग है। यह दो कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । इस आरे के मनुष्यों का देह माप एक कोस का तथा आयु प्रमाण एक पल्योपम का । कल्पवृक्ष आदि श्रेष्ठ वस्तुओं का प्रभाव हीनतम होता है । द्वार १६०-१६१ ४. दुःषम- सुषमा – दुःख-सुख रूप काल । यह अवसर्पिणी का चतुर्थ भाग है । इसका कालमाप बयालीस हजार वर्ष न्यून एक कोड़ाकोड़ी सागर का है। मनुष्यों का देहमान पाँच सौ धनुष से सात हाथ पर्यंत तथा आयु पूर्वक्रोड़ वर्ष की होती है । कल्पवृक्ष आदि का प्रभाव प्रायः नष्ट हो जाता है । ५. दुःषमा – दुःख रूप काल । यह अवसर्पिणी का पञ्चम भाग है । इसका कालमान इक्कीस हजार वर्ष का है। मनुष्यों का देहमान व आयु (सौ वर्ष से पूर्व) अनियत है । अन्त में बीस वर्ष की आयु तथा देहमाप दो हाथ का । इस ओर में श्रेष्ठ वस्तुओं की अनन्तगुण हानि होती है । ६. दुःषम- दुःषमा — अत्यन्त दुःखरूप काल । यह अवसर्पिणी का छठा भाग है । इसका कालमान इक्कीस हजार वर्ष का । इस आरे के मनुष्यों का देहमान अनियत है । अन्त में एक हाथ का ही देहमान होता है । आयु प्रमाण सोलह वर्ष का है। औषधि आदि शुभ वस्तुओं की हानि हो जाती है । छः आरों का विशेष स्वरूप आगमों से जानना चाहिये ॥ १०३३-३७ ।। १६१ द्वार : उत्सर्पिणी अवसप्पिणीव भागा हवंति उस्सप्पिणीइवि छ एए । पडिलोमा परिवाडी नवरि विभासु नायव्वा ॥१०३८ ॥ -गाथार्थ उत्सर्पिणी का स्वरूप—अवसर्पिणी की तरह उत्सर्पिणी के भी छ: भाग हैं परन्तु उनका क्रम पूर्वापेक्षया विपरीत समझना चाहिये ||१०३८ ॥ -विवेचन उत्सर्पिणी- जिसमें आरों का कालमाप क्रमशः बढ़ता जाता है । अथवा जिस काल में जीवों की आयु, देहमान आदि क्रमशः बढ़ते जाते हैं, वह उत्सर्पिणी काल है । इसके भी छः भाग होते हैं जो कि पूर्ववत् आरे कहलाते हैं । पर इतना अन्तर है कि इसमें आरों का क्रम पूर्व की अपेक्षा विपरीत होता है जैसे, दुःषम- दुःषमा, दुःषमा, दुःषम-सुषमा, सुषम- दुःषमा, सुषमा, सुषम- सुषमा । इस प्रकार बीस कोड़ाकोड़ी सूक्ष्म अद्धा सागरोपम प्रमाण बारह आरे होते हैं तथा बारह आरे अर्थात् उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी मिलकर एक कालचक्र होता है। जिस प्रकार चक्र में आरे होते हैं तथा वह गोलाकार (अंतहीन) होता है, कालचक्र भी बारह आरों वाला तथा अन्तहीन सतत गतिमान होता है। कालचक्र का प्रवर्तन पाँच भरत व पाँच ऐरवत क्षेत्र में अनादि अनन्त काल तक होता रहता है। जैसे अहोरात्र में प्रथम दिन है या रात बताना असंभव होता है वैसे कालचक्र में प्रथम उत्सर्पिणी है या 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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