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प्रवचन-सारोद्धार
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पूर्वोक्त रीति से रखने पर सात वर्ष के पश्चात् अबीज बनते हैं। पूर्वोक्त काल धान्य की अचित्तता का उत्कृष्ट काल है। जघन्य से तो सभी धान्य अन्तर्मुहूर्त पश्चात् अचित्त हो सकते हैं। परन्तु इसका ज्ञान अतिशय ज्ञानी ही कर सकते हैं। छद्मस्थ इसका ज्ञान करने में असमर्थ हैं। इसीलिये अचित्त होने पर भी व्यवहार दृष्टि से उनका उपयोग नहीं किया जा सकता। तालाब का पानी अचित्त होने पर भी भगवान महावीर ने प्यास से व्याकुल मुनियों को पीने की आज्ञा नहीं दी, क्योंकि इस प्रकार की अचित्तता छद्मस्थ आत्माओं के लिये अज्ञात है। ऐसा न हो कि इसे उदाहरण बनाकर परवर्ती साधुगण सचित्त पानी का भी उपयोग करने लगे ॥ ९९९-१००० ॥
१५५ द्वार:
क्षेत्रातीत का अचित्तत्व
जोयणसयं तु गंता अणहारेणं तु भंडसंकंती। वायागणिधूमेहि य विद्धत्थं होइ लोणाई ॥ १००१ ॥ हरियालो मणसिल पिप्पली य खज्जूर मुद्दिया अभया। आइन्नमणाइन्ना तेऽवि हु एमेव नायव्वा ॥ १००२ ॥ आरुहणे ओरुहणे निसियण गोणाइणं च गाउम्हा। भोम्माहारच्छेओ उवक्कमेणं तु परिणामो ॥ १००३ ॥
-गाथार्थधान्यों की क्षेत्र आदि के द्वारा अचित्तता-सौ योजन जाने के पश्चात् आहार के अभाव से, एक स्थान से दूसरे स्थान पर बार-बार संक्रमण करने से, पवन, आग, धुआं आदि लगने से नमक आदि द्रव्य अचित्त बन जाते हैं ॥ १००१॥
१. हरताल २. मनशिल ३. पीपर ४. खजूर ५. हरड़े आदि द्रव्य भी सौ योजन उपरान्त पूर्वोक्त कारणों से अचित्त बन जाते हैं। अचित्त हो जाने पर भी कुछ वस्तुयें कल्प्य होती हैं और कुछ अकल्प्य ही रहती हैं ।। १००२॥ .
नमक आदि का गाड़ी आदि में चढ़ाने, उतारने, उस पर बैठने, गाय आदि के शरीर की उष्मा लगने तथा योग्य भूमि सम्बन्धी आहार न मिलने रूप उपक्रम के लगने से अचित्तरूप परिणमन हो जाता है। ११०३ ।।
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