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द्वार १५५-१५६
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-कासासासनलव-सम्मा -
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-विवेचन१. लवण (नमक) आदि पृथ्विकायिक विवक्षित क्षेत्र से सौ योजन उपरान्त ले जाने पर पूर्ण
रूप से अचित्त हो जाते हैं। सौ योजन के पश्चात् उन जीवों को या तो अनुकूल आहार
नहीं मिलता या अनुकूल मौसम नहीं मिलता, अत: वे मर जाते हैं। केचित्-कुछ आचार्यों का मन्तव्य है कि लवण आदि पृथ्विकायिक वस्तुयें विवक्षित स्थान से २०० कोस ले जाने पर अचित्त हो जाती हैं। निशीथचूर्णि में कहा है-'केइ पठंति गाउयसयगाहा'। २. एक पात्र से दूसरे पात्र में, एक स्थान से दूसरे स्थान में रखने से, वायु, अग्नि तथा
धुआं लगने से भी नमक आदि पृथ्विकाय अचित्त बन जाता है। • अप्काय, तेऊकाय, वायुकाय तथा वनस्पतिकाय की अचित्तता भी पृथ्विकाय की तरह ही
समझना ॥१००१ ।। हरताल, मैनशिल (दोनों धातु विशेष हैं), दाख, पीपर, हरड़े आदि भी सौ योजन ले जाने पर अचित्त हो जाती हैं। इनकी अचित्तता के भी पूर्वोक्त ही कारण हैं। परन्तु इनमें कुछ चीजें स्वभावत: कल्प्य हैं तो कुछ चीजें अकल्प्य हैं। जैसे-पीपर, हरड़े आदि कल्प्य होने से अचित्त हो जाने के बाद ग्राह्य हैं, पर खजूर, दाख आदि अकल्प्य होने से अचित्त हो जाने के बाद भी अग्राह्य ही हैं ॥१००२ ॥ अचित्तता के कारणगाड़ी आदि में अथवा बैल आदि की पीठ पर रखने से अथवा नीचे उतारने से लवणादि अचित्त बनते हैं। नमक आदि पर बैठने से, बैल आदि के शरीर की गर्मी से अथवा लवणादि पृथ्विकायिक जीवों को आहार आदि न मिलने से वे अचित्त बन जाते हैं। उपक्रम लगने से भी अचित्त बन जाते हैं। उपक्रम = जिससे लंबी आयु अल्प समय में क्षीण हो जाती है वह उपक्रम है। जैसे स्वकायशस्त्र, परकायशस्त्र व उभयकाय शस्त्र । स्वकायशस्त्र—सजातीय शस्त्र जैसे-खारा पानी, मीठे पानी का शस्त्र है। परकायशस्त्र-विजातीय शस्त्र जैसे वनस्पति के लिये आग शस्त्र है। उभयकायशस्त्र-मिट्टीयुक्त जल, शुद्धजल के लिये शस्त्र है ॥१००३ ।।
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धान्य-संख्या
धन्नाइं चउवीसं जव गोहम सालि वीहि सट्ठी य। कोद्दव अणुया कंगू रालय तिल मुग्ग मासा य ॥ १००४ ॥ अयसि हरिमंथ तिउगड निष्फाव सिलिंद रायमासा य । इक्खू मसूर तुवरी कुलत्थ तह धन्नय कलाया ॥ १००५ ॥
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