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________________ १२२ द्वार १५३ (९) प्रेष्य.........अन्य को पाप में प्रवृत्त नहीं करना (१०) उद्दिष्ट....प्रतिमाधारी श्रावक को उद्देश्य बनाकर अचित्त किया हुआ या पकाया हुआ भोजन ग्रहण नहीं करना। (११) श्रमण भूत....साधु की तरह रहना दर्शन, व्रत आदि के साथ 'प्रतिमा' शब्द का प्रयोग करके दर्शन प्रतिमा...व्रतप्रतिमा इस प्रकार कथन करना चाहिये। पूर्वोक्त ११ श्राद्ध प्रतिमायें हैं। श्राद्ध = श्रावक, प्रतिमा = अभिग्रह, प्रतिज्ञा विशेष ॥९८० ॥ जो प्रतिमा जितने क्रमांक की है उस प्रतिमा का वहन काल उतने महिने का समझना । उदारणार्थ-९वी प्रतिमा का वहन काल ९ मास, ११वीं का ११ मास कुल ११ प्रतिमा का वहन काल ५ वर्ष का है। __ यद्यपि इन प्रतिमाओं का कालमान दशाश्रुतस्कंध आदि में साक्षात् नहीं कहा गया है फिर भी उपासकदशा आदि में आनन्दादि श्रावकों का प्रतिमावहन काल कुल मिलाकर ५- वर्ष का बताया है। यह परिमाण पूर्वोक्त रीति से प्रत्येक प्रतिमा का वहन काल मानने पर ही संगत होता है। • उत्तर प्रतिमाओं में उनके लिये विहित आराधना के साथ पूर्व प्रतिमाओं की भी सारी क्रिया-आराधना करनी होती है। जैसे दूसरी प्रतिमा में, दूसरी प्रतिमा की आराधना के साथ, प्रथम प्रतिमा का भी सारा क्रिया अनुष्ठान करना होता है। यावत् ग्यारहवीं प्रतिमा में दशवी प्रतिमा तक का सम्पूर्ण अनुष्ठान करना पड़ता है ।।९८१ ॥ १. दर्शन प्रतिमा - शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य—इन पाँच गुणों से युक्त, कदाग्रह से रहित, शंका-कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टि प्रशंसा और संस्तव, इन पाँचों अतिचारों से विशुद्ध सम्यग् दर्शन का स्वीकार करना। कदाग्रह = तत्त्व के प्रति मिथ्या आग्रह रखना। कदाग्रह, शंका, कांक्षा आदि शल्यरूप है क्योंकि इनके कारण आत्मा दु:खी होती है। यद्यपि सम्यग् दर्शन, प्रतिमाधारी को पहले भी था किन्तु दर्शन प्रतिमा का वहन करते समय कदाग्रह शंकादि दोष, राजाभियोग आदि छ: अपवादों से रहित (निरपवाद) तथा अणु व्रतादि के पालन से विकल मात्र सम्यग-दर्शन का विशेष रूप से पालन करना आवश्यक है। इसीलिये उपासकदशा में वर्णित ग्यारह ही प्रतिमाओं का साढ़े पाँच वर्ष का कालमान संगत होता है। अन्यथा सम्यग्दर्शनादि का अस्तित्व पूर्व होने से प्रतिमाओं का कालमान निर्धारण करने की कोई आवश्यकता नहीं रहती। हाँ, दशाश्रुतस्कन्ध में इस प्रतिमा का कालमान ऐसा नहीं कहा गया है, क्योंकि वहाँ दर्शन प्रतिमा श्रद्धारूप ही मानी गई है ।।९८२ ॥ २. व्रत प्रतिमा - पाँच अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षा-व्रत, इनका निरपवाद रूप से पालन करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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