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द्वार १५२
(i) सामायिक
राग-द्वेष रहित जीवन सामायिक है अथवा जिस अनुष्ठान से ज्ञान, दर्शन, चारित्र का लाभ होता हो वह सामायिक चारित्र है I
• यद्यपि सभी चारित्र सामायिकरूप हैं तथापि छेद आदि विशेषण से युक्त होने से अर्थ व शब्द दोनों की अपेक्षा से परस्पर भिन्न हैं । सामायिक चारित्र दो प्रकार का है— इत्वरिक व यावत्कथिक ।
• इत्वरिक- बड़ी दीक्षा से पूर्व का चारित्र । यह चारित्र भरत व ऐरवत क्षेत्र में प्रथम व अंतिम तीर्थंकर के समय में होता है ।
• यावत्कथिक— यावज्जीव का चारित्र । यह चारित्र भरत व ऐरवत क्षेत्र में २२ तीर्थंकर के काल में तथा महाविदेह में होता है ।
प्रश्न- इत्वरिक चारित्र भी ग्रहण करते समय तो यावज्जीव का ही लिया जाता है। 'यथा - सामायिकं करोमि भदंत ? यावज्जीवं .... ।' बड़ी दीक्षा के समय पाँच महाव्रत स्वीकार करने पर सामायिक चारित्र का त्याग हो जाता है। क्या वहाँ यावज्जीव के लिये गृहीत प्रतिज्ञा का भंग नहीं होता ?
उत्तर - यह पहिले ही कह दिया गया कि - सभी चारित्र सामान्यतः सामायिकरूप हैं, क्योंकि सभी चारित्र सावद्ययोगों की विरतिरूप होते हैं । परन्तु विशुद्धि तारतम्य से वे छेदोपस्थापनीय आदि भिन्न-भिन्न नामों से कहे जाते हैं। अत: जैसे यावत्कथिक सामायिक अथवा छेदोपस्थापनीय संयम, विशिष्ट विशुद्धिवाले सूक्ष्मसंपराय आदि चारित्र का पालन करने पर भंग नहीं होते, वैसे इत्वर सामायिक चारित्र भी विशुद्धिरूप 'छेदोपस्थापनसंयम' का पालन करने पर भंग नहीं होता । हाँ, यदि दीक्षा छोड़ दी जाये तो उसका भंग अवश्य हो जाता है । परन्तु चारित्र के उत्तरोत्तर विशुद्ध रूप को स्वीकार करने पर पूर्व स्वीकृत चारित्र का कदापि भंग नहीं होता । (ii) छेदोपस्थापन
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जिस चारित्र में पूर्वपर्याय का नाश तथा पाँच महाव्रतों का स्वीकार होता है वह छेदोपस्थापन चारित्र है । वह दो प्रकार का है। सातिचार व निरतिचार ।
• सातिचार — जिसके अहिंसादि मूल गुणों का नाश हो चुका हो उसको पुनः व्रतधारण करवाना । • निरतिचार - इत्वर सामायिक वाले नूतनदीक्षित मुनि को पाँच महाव्रत उच्चराना अथवा एक
तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाते समय उस तीर्थ सम्बन्धी महाव्रतों को ग्रहण करना । जैसे, पार्श्वनाथ के तीर्थ से भगवान महावीर के तीर्थ को स्वीकार करते समय पाँच महाव्रतरूप धर्म को स्वीकार करना । (iii) परिहार विशुद्धि
परिहार = तप विशेष । विशुद्धि = कर्मनिर्जरारूप। जिस चारित्र में तप विशेष के द्वारा कर्मनिर्जरा की जाती हो वह परिहार विशुद्धि चारित्र है । इसका विस्तृत विवेचन ६९ वें द्वार में प्रतिपादित कर चुके हैं।
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