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प्रवचन-सारोद्धार
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६ द्रव्य(i) धर्म
- धर्म अर्थात् धर्मास्तिकाय। यहाँ धर्म का अर्थ है स्वभावत:
गतिक्रिया में परिणत जीव और पुद्गल को गति करने में सहायक द्रव्य । अस्ति यानि प्रदेश। काय यानि समूह/प्रदेशों का समूह अस्तिकाय है। स्वभावत: गति क्रिया में परिणत जीव व पुद्गल
को सहायक बनने वाला प्रदेश समूह धर्मास्तिकाय है। (ii) अधर्म - अधर्म अर्थात् अधर्मास्तिकाय । स्वभावत: स्थितिशील जीव व पुद्गल
को ठहरने में सहायक बनने वाला प्रदेश समूह अधर्मास्तिकाय है । • पूर्वोक्त दोनों द्रव्य असंख्य प्रदेशी, अमूर्त तथा लोकव्यापी हैं। चौदह रज्जु परिमाण आकाश
प्रदेश की लोकसंज्ञा का कारण ही धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय है। इनके कारण ही वहाँ जीव तथा पुद्गलों का प्रचार प्रसार है अन्यथा अलोक में भी जीव पुद्गल का प्रचार- प्रसार हो जाता और वह भी लोकसंज्ञा का भागी बनता। (iii) आकाश - आङ् का अर्थ है मर्यादा, काश का अर्थ है प्रकाशित होना अर्थात्
अपने स्वरूप का परित्याग नहीं करते हुए पदार्थ समूह जिसमें संयोग सम्बन्ध से रहता है, अपने स्वरूप से दीपित होता है वह आकाश है। यदि यहाँ आङ् का अर्थ अभिविधि करें तो अर्थ होगा कि जो सभी पदार्थों को व्याप्त करके रहता है..प्रकाशित होता है वह आकाश
है। यह लोकालोक व्यापी, अमूर्त व अनन्त प्रदेशी द्रव्य है। (iv) काल
- समस्त वस्तु समूह की गणना जिसके द्वारा होती है वह काल
है अथवा केवली व छद्मस्थ दोनों के द्वारा होने वाला समय की सीमा से युक्त सजीव व निर्जीव वस्तुओं के ज्ञान का माध्यम काल है । जैसे—इस वस्तु को उत्पन्न हुए आवलिका.मुहूर्त...दिन बीत चुका है इत्यादि कथन काल से सम्बन्धित है। इस प्रकार
काल एक द्रव्य विशेष है। (v) पुद्गल
चय-उपचय स्वभाव वाला द्रव्य विशेष पुद्गल है। परमाणु से लेकर अनंत अणु वाले स्कंध सभी पुद्गल हैं। ये अपने संयोग से किसी द्रव्य की वृद्धि तथा अपने वियोग से किसी द्रव्य की
हानि करते हैं ऐसे पुद्गलों का समूह पुद्गलास्तिकाय है। (vi) जीव
जिसके लिये इन शब्दों का प्रयोग होता है, जैसे जीवन्ति (जी रहा है), जीविष्यन्ति (जीयेगा), जीवितवन्त: (जी चुका) वह जीव पदार्थ है । जीव प्रति शरीर भिन्न-भिन्न है। प्रत्येक जीव असंख्यात प्रदेशी, लोकव्यापी तथा अमूर्त है।
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