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द्वार १५२
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• प्रदेशों का समूह अस्तिकाय है। काल निरंश, समयप्रमाण होने से अप्रदेशी है। अत: वह
अस्तिकाय नहीं कहलाता। षड्द्रव्यों का उपयोग
• जीव व पुद्गलों की गति में सहायक होने से धर्मास्तिकाय उपयोगी है। • जीव व पुद्गलों की स्थिति में सहायक होने से अधर्मास्तिकाय उपयोगी है। • जीवादि पदार्थों का आधार होने से आकाशास्तिकाय उपयोगी है। • बकुल, अशोक, चम्पक आदि के फूलों-फलों के लगने व पकने के समय का निर्णायक होने
से काल उपयोगी है। • घट, पटादि के निर्माण के लिये पुद्गलास्तिकाय उपयोगी है।
• प्रत्येक प्राणी में स्वसंवेदनसिद्ध चैतन्य की सिद्धि के लिये जीवद्रव्य उपयोगी है ॥९७२-९७३ ।। ९ पद(i) जीव
- सुख, दुःख का उपभोक्ता अर्थात् उपयोग स्वभाव वाला है। (ii) अजीव - जड़ स्वभाव वाला, जैसे धर्मास्तिकाय आदि है। (iii) पुण्य
- जिसके उदय में जीव को सुख का अनुभव होता है। (iv) पाप
- जिसके उदय में जीव को दुःख का अनुभव होता है। (v) आस्त्रव
- जिसके द्वारा शुभाशुभ कर्मों का आगमन होता हो वे आस्रव हैं,
जैसे हिंसा...झूठ आदि । (vi) संवर - आस्रव द्वारों का निरोध करने वाला संवर है, जैसे समिति, गुप्ति
आदि ।
- भोगकर या तप द्वारा कर्मों का आंशिक क्षय करना निर्जरा है। (viii) बंध - कर्म-प्रदेशों का आत्मा के साथ दूध-पानी की तरह मिलना बंध
(vii) निर्जरा
(ix) मोक्ष
- सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से आत्म-स्वरूप का प्रकट होना मोक्ष
• जिनशासन में पूर्वोक्त नवपद अत्यन्त सारभूत हैं। • आस्रव, बंध, पुण्य व पाप ये चारों संसार के मूल कारण होने से 'हेय' हैं। • संवर व निर्जरा जीव के मुख्य साध्य मोक्ष के कारण होने से 'उपादेय' हैं । शिष्य को हेय-उपादेय का ज्ञान सुगमता से हो, इसके लिये जीव-अजीव आदि नव पदार्थ अलग-अलग बताये हैं। वास्तव में देखा जाए तो मूल पदार्थ जीव और अजीव दो ही हैं। पुण्य-पाप आदि का उन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है।
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