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द्वार १५१
जैसे
(क) जीवित गाय आदि के शरीर में उत्पन्न होने वाले कृमि आदि की 'सचित्तयोनि' है। (ख) अचित्तकाष्ठ आदि में उत्पन्न होने वाले 'घुण' आदि की अचित्तयोनि है।
(ग) सचित्त-अचित्त काष्ठ व गाय के 'व्रण' में उत्पन्न होने वाले 'घुण' 'कृमि' आदि की तथा गर्भज मनुष्य-तिर्यंच की मिश्रयोनि है।
• योनि द्वारा आत्मसात् किये गये शुक्र (वीर्य) मिश्रित शोणित (रक्त) के पुद्गल सचित्त योनि
• सचित्त से विपरीत पुद्गल अचित्त योनि है। अथवा संवृतादि के भेद से भी योनि के तीन प्रकार हैं(i) संवृत (ii) विवृत (iii) संवृतासंवृत (उभय)
(i) नारक, देव और एकेन्द्रिय की संवृत योनि है। नारक जीवों का उत्पत्ति स्थान (निष्कुट) ढके हुए गवाक्ष की तरह है। देवता, देवदूष्य के अन्दर प्रच्छन्न जन्मते हैं तथा एकेन्द्रियों का उत्पत्ति स्थान सर्वथा अनुपलक्षित है, अत: इन तीनों की संवृतयोनि है।
(ii) विकलेन्द्रिय, संमूर्च्छिम मनुष्य व संमूर्छिम तिर्यंच की विवृतयोनि है क्योंकि इनके उत्पत्ति स्थान--(जलाशय, गटर आदि) स्पष्ट दिखाई देते हैं, अत: उनकी विवृत योनि है।
(iii) गर्भज तिर्यंच और गर्भज मनुष्य की उभय रूप योनि है। उनका आन्तरिक गर्भस्थरूप दिखाई नहीं देता अत: संवृतयोनि है। उदरवृद्धि आदि लक्षणों से बाहर गर्भ का ज्ञान होता है अत: विवृतयोनि है। इस प्रकार इनकी योनि उभयरूप है। मनुष्य योनि के सम्बन्ध में विशेष
मनुष्य की तीन प्रकार की योनि होती है(i) कूर्मोन्नता (कछुए की पीठ की तरह जिसका मध्य भाग उन्नत है)। (ii) शंखावर्ता (शंख की तरह आवर्त वाली)। (iii) वंशीपत्रा (बांस के दो पत्रों को जोड़ने पर जो आकार बनता है वैसे आकार वाली)। (अ) तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव कूर्मोन्नता योनि में उत्पन्न होते हैं। (ब) सामान्य मनुष्य वंशीपत्रा योनि में उत्पन्न होते हैं।
(स) शंखावर्तायोनि 'स्त्रीरत्न' की ही होती है। इस योनि में गर्भ-उत्पादक क्षमता नहीं होती। कदाचित् गर्भ उत्पन्न हो जाये तो भी उसकी निष्पत्ति नहीं हो सकती। कहा है
प्रबलतमकामाग्निपरितापतो ध्वंसगमनात् इति वृद्धप्रवादः । प्रबलतम काम की आग से जलकर गर्भ नष्ट हो जाता है। ऐसी वृद्ध पुरुषों की मान्यता है ॥९७० ॥
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