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द्वार १५१
-गाथार्थजीवों की योनि—पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु की सात-सात लाख योनियाँ हैं। प्रत्येक वनस्पति की दस लाख, साधारण वनस्पति की चौदह लाख, विकलेन्द्रिय की दो-दो लाख, नारक की चार लाख, देवता की चार लाख, तिर्यंच पंचेन्द्रिय की चार लाख तथा मनुष्य की चौदह लाख योनियाँ हैं॥ ९६८-६९ ।।
सामान्य वर्ण गंधादि वाली लाखों योनियाँ होने पर भी वर्णादि की समानता के कारण वे सभी एक ही योनिरूप मानी जाती हैं।। ९७० ॥
-विवेचन योनि = जहाँ तैजस्-कार्मण शरीर वाले जीवों का औदारिक, वैक्रिय आदि शरीर प्रायोग्य पुद्गल स्कन्धों के साथ मिश्रण होता है वह योनि कहलाती है। अर्थात् जीवों का उत्पत्तिस्थान ‘योनि' है।
य
१. पृथ्विकाय २. अप् काय ३. तेउकाय ४. वायुकाय ५. प्रत्येक वनस्पति ६. साधारण वनस्पति ७. द्वीन्द्रिय
७ लाख ८. वीन्द्रिय ७ लाख ७ लाख १०. नारक ७ लाख | ११. देवता १० लाख | १२. तिर्यंच पंचेन्द्रिय १४ लाख १३. मनुष्य २ लाख
२ लाख २ लाख ४ लाख ४ लाख ४ लाख
१४ लाख
कुल ८४ लाख जीवयोनि है।
प्रश्न –जीव अनन्त हैं इसलिये उनके उत्पत्तिस्थान भी अनन्त होने चाहिये, ८४ लाख ही कैसे?
उत्तर-यद्यपि जीव अनन्त हैं तथापि उनके उत्पत्ति स्थान अनन्त नहीं हो सकते। कारण सभी जीवों का सामान्य आधारभूत लोक असंख्य प्रदेशी है तथा विशेष आधारभूत नरक निष्कुट (नारकों का उत्पत्ति स्थान), देवशय्या (देवताओं का उत्पत्ति स्थान), साधारण व प्रत्येक जीवों के शरीर भी असंख्याता ही हैं। अत: सभी जीवों के उत्पत्ति स्थान कुल मिलाकर भी अनन्त नहीं हो सकते।
प्रश्न-पूर्व कथनानुसार यद्यपि उत्पत्ति स्थान अनन्त नहीं हैं तथापि असंख्याता तो हैं ही। अत: असंख्याता क्यों नहीं कहा?
उत्तर-सभी जीवों के उत्पत्ति स्थान (योनि) यद्यपि अलग-अलग हैं तथापि वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शादि की साम्यता के कारण कई उत्पत्ति स्थान परस्पर एक माने जाते हैं। अत: ज्ञानियों की दृष्टि में परस्पर वर्णादि की भिन्नता वाले उत्पत्ति स्थान ८४ लाख ही होते हैं ।। ९६८-९६९ ॥
सामान्यत: समान वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाली लाखों योनियाँ अलग-अलग होने पर भी जातीय दृष्टि से सभी एक मानी जाती हैं।
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