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होता । तद्भव सम्बन्धी क्षायिक सम्यक्त्व संख्याता आयु वाले मनुष्य को ही होता है तथा पारभविक क्षायिक सम्यक्त्व इसलिये नहीं होता कि क्षायिक सम्यक्त्वी मरकर इनमें उत्पन्न नहीं होता। इनमें उपशम व क्षायोपशमिक दो सम्यक्त्व ही होते हैं 1
• एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय में तद्भव सम्बन्धी या परभव सम्बन्धी तीनों में से एक भी सम्यक्त्व नहीं होता ।
द्वार १४९-१५०
• बादर पृथ्वी, पानी, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रियकी अपर्याप्तावस्था में पारभविक तथा पर्याप्ता संज्ञी पंचेन्द्रिय में तद्भव सम्बन्धी सास्वादन सम्यक्त्व होता है ।
• सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर तेजस् - वायु में लेशमात्र भी सम्यक्त्व वाला आत्मा उत्पन्न नहीं होता, अतः इनमें सास्वादन सम्यक्त्व भी नहीं होता, ऐसा कर्म-ग्रन्थकार का मत है 1
• सिद्धांत के मतानुसार तो पृथ्वी आदि एकेन्द्रियमात्र में सास्वादन सम्यक्त्व नहीं होता । जैसे कि प्रज्ञापना में कहा है
पुढविकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! पुढ़विकाइया नो सम्मदिट्ठी,
मिच्छादिट्ठी, नो सम्ममिच्छदिट्ठी, एवं जाव वणफ्फइकाइया ।
अर्थ- हे गौतम! पृथ्विकाय के जीव सम्यग्दृष्टि वाले, मिश्रदृष्टिवाले नहीं होते पर मिथ्यादृष्टिवाले ही होते हैं । अप्काय से लेकर वनस्पतिकाय तक ऐसा ही समझना चाहिये ।। ९६१ - ९६२ ॥
१५० द्वार :
कुलकोटि
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बारस सत्तय तिन्निय सत्त य कुलकोडिसयसहस्साइं । नेया पुढविदगागणिवाऊणं चेव परिसंखा ॥ ९६३ ॥ कुलकोडिसयसहस्सा सत्तट्ठ य नव य अट्ठवीसं च । बेइंदिय-तेइंदिय- चउरिंदिय - हरियकायाणं ॥ ९६४ ॥ अद्धत्तेरस बारस दस दस नव चेव सयसहस्साई जलयरपक्खिचउप्पयउरभुयसप्पाण कुलसंखा ॥ ९६५ ॥ छव्वीसा पणवीसा सुरनेरइयाण सयसहस्साइं । बारस य सयसहस्सा कुलकोडीणं मणुस्साणं ॥ ९६६ ॥ एगा कोडाकोडा सत्ताणउई भवे सयसहस्सा । पन्नासं च सहस्सा कुलकोडीणं मुणेयव्वा ॥ ९६७ ॥
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