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प्रवचन-सारोद्धार
स
पूर्वोक्त छ: स्थानों की विद्यमानता में ही सम्यक्त्व संभवित होता है। ‘आत्मा है' इत्यादि छ: स्थानों के विषय में बहुत कुछ कहने योग्य है पर ग्रन्थ क्लिष्ट न हो जाय इस भय से इतना ही कहा गया है ॥९४१ ॥
१४९ द्वार:
सम्यक्त्व-प्रकार
एगविह दुविह तिविहं चउहा पंचविह दसविहं सम्मं । दव्वाइ कारगाई उवसमभेएहि वा सम्मं ॥ ९४२ ॥ एगविहं सम्मरुई निसग्गऽभिगमेहि तं भवे दुविहं । तिविहं तं खइयाई अहवावि हुं कारगाईहिं ॥ ९४३ ॥ सम्मत्तमीसमिच्छत्तकम्मक्खयओ भणंति तं खइयं । मिच्छत्तखओवसमा खाओवसमं ववइसंति ॥ ९४४ ।। मिच्छत्तस्स उवसमा उवसमयं तं भणंति समयन्नू । तं उवसमसेढीए आइमसम्मत्तलाभे वा ॥ ९४५ ॥ विहिआणुट्ठाणं पुण कारगमिह रोयगं तु सद्दहणं । मिच्छद्दिट्ठी दीवइ जं तत्ते दीवगं तं तु ॥ ९४६ ॥ खइयाई सासायणसहियं तं चउविहं तु विन्नेयं । तं सम्मत्तब्भंसे मिच्छत्ताऽऽपत्तिरूवं तु ॥ ९४७ ॥ वेययसंजुत्तं पुण एवं चिय पंचहा विणिद्दिढ़ । सम्मत्तचरिमपोग्गलवेयणकाले तयं होइ ॥ ९४८॥ एयं चिय पंचविहं निस्सग्गाभिगमभेयओ दसहा । अहवावि निसग्गरुई इच्चाइ जमागमे भणिअं ॥ ९४९ ॥ निस्सग्गु वएसरुई आणरुई सुत्त बीय रुईमेव । अहिगम वित्थाररुई किरिया संखेव धम्मरुई ॥ ९५० ॥ जो जिणदिढे भावे चउविहे सद्दहेइ सयमेव । एमेव नन्नहत्ति य स निसग्गरुइत्ति नायव्वो ॥ ९५१ ॥ एए चेव उ भावे उवइटे जो परेण सद्दहइ।
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