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________________ द्वार १४८ (v) निर्वाणमस्ति–निर्वाण यानि राग-द्वेष का क्षय होने के बाद जीव की अवस्था विशेष । जो दार्शनिक दीपक के बुझने की तरह निर्वाण-अवस्था में जीव का सर्वथा नाश मानते हैं, उनके मतानुसार मोक्ष सर्वथा अभाव रूप है, परन्तु पूर्वोक्त मान्यता से उनका मत खंडित हो जाता है। बौद्ध दीपक के बुझने की तरह आत्मसंतति का सर्वथा नाश हो जाना ही मोक्ष मानते हैं। बौद्धमत जैसे, दीपक बुझता है वैसे जीव को निर्वाण प्राप्त होता है। • दीपक बुझने के पश्चात् तथा जीव मुक्त होने के पश्चात् । • न पृथ्वी में प्रविष्ट होता है, • न आकाश में उड़ता है, • न दिशा-विदिशा में दौड़ता है, किन्तु तेल के/क्लेश के क्षय होने से केवल शांत/नष्ट हो जाता है। यह मत असत्य है, क्योंकि जिसमें स्वयं जीव का सर्वनाश हो जाता हो ऐसे निर्वाण को पाने के लिये कौन प्रयत्न करेगा? तथा दीक्षा आदि के पालन का प्रयास भी निरर्थक सिद्ध होगा। प्रश्न-नरकादि के दुःखों से छूटने के लिये प्रयत्न क्यों नहीं करेगा? उत्तर-दुःख नाश की इच्छा की तरह सुख की भूख भी इस आत्मा को है। यही कारण है कि कोई कितना भी दुःखी क्यों न हो, वह दुःख से मुक्त होने के लिये बेहोश होना पसंद नहीं करता। अन्यथा बेहोशी में कुछ समय के लिये दुःख का नाश तो है ही। प्रत्येक आत्मा सुख के लिये प्रयास सिद्ध है कि सुख के लिये जीव का प्रयास अपने सुख-पूर्ण अस्तित्व के लिये हैं। दीपक का दृष्टांत भी असत्य है। दीपक के बुझने का अर्थ है-अग्नि के पुद्गलों का रूपान्तरण । अपने जाज्वल्यमान रूप को छोड़कर तमसपुद्गलों के रूप में बदल जाना। अति सूक्ष्म परिणमन होने से दीपक बुझने के बाद दिखाई नहीं देता, वास्तव में उसका नाश नहीं होता है। प्रकाश के पुद्गलों का अंधकार के रूप में परिणमन होना ही दीपक का बुझना है। वैसे जीव का कर्मरहित होकर अमृत रूप परिणमन/रूपान्तरण ही मोक्ष है। अत: मोक्ष के लिये प्रयास युक्ति-युक्त है। मोक्षोपायोऽस्ति-मोक्ष-प्राप्ति के उपाय हैं। सम्यग् ज्ञान, सम्यग्-दर्शन एवं सम्यग् चारित्र मोक्ष प्राप्ति के उपाय हैं क्योंकि कर्म-बंधन के कारण मिथ्यात्व, अज्ञान, हिंसादि है और सम्यग्दर्शनादि उनके प्रतिपक्षी हैं, अत: ये कर्मों का नाश करने में समर्थ हैं। प्रश्न-जैसे आपने मोक्ष के साधन माने हैं, वैसे मिथ्यादृष्टियों ने भी माने हैं, वे भी मोक्ष साधक होगें? - उत्तर–नहीं ! वे मोक्ष-साधक नहीं हो सकते, क्योंकि वे कर्मबंधन के कारणभूत हिंसादि दोषों से दूषित होने से संसार के ही साधक हैं। इससे जो मोक्षगमन के उपायभूत साधनों को नहीं मानते, उनका खण्डन होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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