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________________ प्रवचन-सारोद्धार अत: अतिव्याप्ति दोषयुक्त होने से जीव को अनित्य मानना अयुक्त है। इससे बौद्धमत का खण्डन हो जाता है। (iii) जीव: कर्ता-मिथ्यात्वादि हेतुओं के द्वारा जीव कर्म का कर्ता है। कर्म के अस्तित्त्व में प्रमाण–जीवात्मा का सुख-दुःख सकारण है। यदि अकारण होता तो आकाश की तरह सदा होता या आकाश-पुष्प की तरह कभी भी नहीं होता। कहा है कि ‘हेतु निरपेक्ष पदार्थ या तो सदा सत् होते हैं या सदा असत् होते हैं' अत: सुख-दुःख का कारण भूत अदृष्ट-कर्म सिद्ध होता है। तात्पर्य-सुख-दुःख के पीछे स्वयं-कृत कर्म ही कारण है। इससे जीव को अकर्ता मानने वाले सांख्य गलत सिद्ध होते हैं। प्रश्न-यदि जीव कर्म का कर्ता स्वयं है तो अपने लिये दुःखदायी कर्मों का बंधन क्यों करता है ? क्योंकि सभी जीव सुखाभिलाषी हैं। उत्तर-रोग मिटाने की इच्छा वाला भी रोगी मोहवश स्वास्थ्य के लिये हानिकारक अपथ्य का सेवन कर लेता है। वैसे मिथ्यात्वादि वश दुःखदायी कर्मों का बंधन कर लेता है। (iv) जीव: भोक्ता—जीव अपने द्वारा बद्ध कर्मों के फल का भोक्ता है। इसमें स्वानुभव, लोक और आगम प्रमाण है। (१) अनुभव प्रमाण-सुख-दुःख का अनुभव स्वसंवेदन सिद्ध है। यदि इसे कर्मजन्य न माना जाये तो सिद्ध या आकाश की तरह संसारी जीव भी सुख-दुःख के अनुभव से शून्य होगा क्योंकि सिद्ध और आकाश की तरह संसारी जीव के भी सुख-दुःख के कारणभूत साता-असाता वेदनीय-कर्मों का अभाव है। (२) लोक-प्रमाण लोक में सुखी को देखकर 'यह पुण्यशाली है' एवं दुःखी को देखकर 'यह दुर्भागी है। ऐसा कहा जाता है। इससे अदृष्ट कर्म सिद्ध होता है। __(३) आगम-प्रमाण-अन्यशास्त्र में भी कहा है “नाभुक्तं क्षीयते कर्म, कल्पकोटिशतैरपि।" "ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन।" इन वाक्यों से भी सिद्ध होता है कि बाँधा हुआ कर्म कभी निष्फल नहीं जाता। आगम में कहा है कि प्रदेशोदय सभी कर्मों का होता है, रसोदय का नियम नहीं है। होता भी है, नहीं भी होता है। इससे जो दार्शनिक जीव को भोक्ता नहीं मानते उनका मत खंडित हो जाता है। इस प्रकार लोक व आगम प्रमाण से सिद्ध विषय में किसी भी विवेकी को विरोध नहीं हो सकता। अन्यथा कृतकर्म विफल हो जायेंगे। अत: ऐसा मानना अयुक्त है क्योंकि हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि वणिक्, किसान आदि को अपने किये हुए अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगना पड़ता है। इस प्रकार जीव का भोक्तापन सिद्ध होता है। इससे जीव को अभोक्ता मानने वाले मतों का निराकरण हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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