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प्रवचन-सारोद्धार
निह्नव आदि तथा जिनका निन्दनीय दर्शन है ऐसे कुदर्शनी शाक्यादि का संग न करना। सम्यक्त्व की निर्मलता के लिये ये आवश्यक हैं।
प्रश्न-परमार्थसंस्तवादि सम्यक्त्व के भेद तो अंगारमर्दकाचार्य में भी थे, किंतु वे सम्यक्त्वी नहीं थे। क्या लक्षण रहते हुए भी उनमें सम्यक्त्व का अभाव होना लक्षण को व्यभिचारी नहीं बनाता?
उत्तर-आपका कथन ठीक है, किंतु अंगारमर्दकाचार्य में सम्यक्त्व नहीं था, तो उसके लक्षण भी नहीं थे। उनमें जो परमार्थसंस्तवादि दिखाई देते हैं, वे वास्तविक नहीं हैं, आभास मात्र हैं ॥९२८ ।। ३ लिंग
१. शुश्रूषा-सुनने की इच्छा = शुश्रूषा । बोध प्राप्ति के अमोघ कारणभूत धर्म-शास्त्रों के श्रवण की इच्छा अत्यावश्यक है। वह इच्छा इतनी प्रबल होनी चाहिये कि जितनी प्रबल इच्छा एक युवान व्यक्ति को किन्नरी का संगीत सुनने की होती है।
२. धर्म राग-यह दो तरह का है—(१) श्रुत धर्म का राग और (२) चारित्र धर्म का राग। श्रुत धर्म का राग शुश्रूषा के अन्तर्गत आ जाता है। यहाँ चारित्र धर्म का राग ही अभीष्ट है। कर्मोदय के कारण चारित्र का पालन न कर सके तो भी चारित्र धर्म के प्रति राग ऐसा होना चहिए कि कई दिनों से अटवी में भटकते हुए भूखे ब्राह्मण को भोजन के प्रति होता है। उससे भी अधिक प्रबल अभिलाषा चारित्र के प्रति रखनी चहिये।
३. यथासमाधि गुरु-देव की वैयावच्च-गुरु (धर्मोपदेशक आचार्य आदि) तथा देव (अरिहंत) की यथासमाधि अर्थात् देव गुरु की अनुकूलता के अनुसार (सेवा-भक्ति) पूजा आदि आवश्यक कर्तव्य मानकर करना। देव की अपेक्षा गुरु शब्द का पूर्वकथन गुरु के महत्त्व का द्योतक है क्योंकि गुरु के उपदेश के बिना देव के स्वरूप का यथार्थ बोध नहीं हो सकता।
सम्यक्त्वी के गुण होते हुए भी धर्म-धर्मी को अभेद मानने से शुश्रूषा आदि तीनों समकित के लिंग हैं। इनके द्वारा हम किसी भी आत्मा में सम्यक्त्व होने का निर्णय कर सकते हैं।
उपशांतमोह, क्षीणमोह अवस्था को प्राप्त हुए आत्मा में पूर्वोक्त तीनों लक्षण साक्षात् दिखाई नहीं देते, क्योंकि वे कृतकृत्य बन चुके हैं, फिर भी शुश्रूषा आदि के फलस्वरूप मोह का उपशम और मोह का क्षय उन आत्माओं में होने से शुश्रूषा आदि कारण भी उनमें अवश्य अनुमानित हैं ॥९२९ ॥ १० विनय
१. अरहंत = तीर्थंकर २. सिद्ध = अष्टविध कर्म से मुक्त ३. चैत्य = जिनेन्द्र प्रतिमा ४. श्रुत = आचाराङ्ग आदि आगम ५. धर्म = क्षान्त्यादि रूप ६. साधु = श्रमण-समूह
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