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१. उपशम २. संवेग ३. निर्वेद ४. अनुकंपा और ५. आस्तिक्य - ये पाँच सम्यक्त्व के लक्षण
हैं ॥ ९३६ ॥
१. अन्यधर्मी को २. अन्यधर्मियों से मान्य देव को तथा ३. उनसे परिगृहीत स्वदेव को वन्दन-नमस्कार नहीं करना ४. बिना बुलाये अन्यधर्मियों से न बोलना ५. उन्हें आहार आदि न देना तथा ६. गंध- पुष्प आदि न भेजना ।। ९३७-३८ ।।
१. राजाभियोग २. गणाभियोग ३. बलाभियोग ४. देवाभियोग ५. कांतारवृत्ति तथा ६. गुरुनिग्रह - ये छः सम्यक्त्व के आगार हैं ।। ९३९ ।।
सम्यक्त्व, बारह प्रकार के श्रावकधर्म का १. मूल २. द्वार ३ प्रतिष्ठान ४. आधार ५. भाजन और ६. निधि कहा गया है ।। ९४० ॥
१. आत्मा है २. नित्य है ३. कर्म का कर्त्ता है ४. कृतकर्म का भोक्ता है ५. आत्मा का मोक्ष है तथा ६. मोक्ष के उपाय हैं- ये सम्यक्त्व के छः स्थान हैं ।। ९४१ ।।
-विवेचन
इन ६७ भेदों के द्वारा सम्यक्त्व का निश्चय होता है, अतः ये सम्यक्त्व के लक्षण कहलाते हैं ।
४ श्रद्धा ३ लिंग
१० विनय
३ शुद्धि
५ दोष परिवर्जन
८ प्रभावना
५ भूषण
५ लक्षण
६ यतना
६ आगार
६ भावना
६ स्थान
द्वार १४८
इन ६७ भेदों से शुद्ध सम्यक्त्व ही पारमार्थिक सम्यक्त्व है 1
सम्यक् शब्द प्रशंसा के अर्थ में या अविरोध के अर्थ में आता है ।
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" सम्यग् जीवः तस्य भावः = सम्यक्त्वं" अर्थात् प्रशस्त अथवा मोक्ष के अनुकूल जीव का स्वभाव विशेष सम्यक्त्व है ॥९२६-९२७ ॥
६७ कुल
४. श्रद्धान— जिसके द्वारा सम्यक्त्व के अस्तित्व का बोध हो । इसके ४ भेद हैं।
(१) परमार्थसंस्तव - जीवाजीवादि तत्त्वों का बहुमानपूर्वक अभ्यास करना ।
(२) सुदृष्टपरमार्थसेवन —- जीवाजीवादि पदार्थों को अच्छी तरह से जानने वाले आचार्यादि की उपासना करना, यथाशक्ति वैयावच्च करना ।
(३-४) व्यापन्नदर्शन वर्जन व कुदर्शनवर्जन- वास्तव में जिनका कोई दर्शन ही नहीं है ऐसे
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