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________________ ३६ द्वार १ भगवन्तों को अर्थ का प्रतिपादन तीर्थंकर परमात्मा ही करते हैं। इस आगमवचन के अनुसार श्रुतस्तव के अधिकार में जिनस्तव भी प्रस्तुत ही है। तथा श्रुतस्तव के अधिकार में जिनस्तव करना इस बात का द्योतक है कि श्रेयार्थी आत्मा जो कुछ भी करे, तीर्थंकर परमात्मा के नमनपूर्वक ही करे, क्योंकि यही कल्याणप्रद है। अत: श्रुतस्तव के अधिकार में जिनस्तव उपयुक्त है। ७. अधिकार-तमतिमिरपडल. .....धम्मुत्तरं वओ। इस अधिकार में श्रुत की स्तवना की गई है। ८. अधिकार-सिद्धाणं बुद्धाणं.....नमो सया सव्वसिद्धाणं । यह अधिकार सिद्धों की स्तवना रूप है। ९. अधिकार-जो देवा.नरं व नारिं वा। इससे वर्तमान तीर्थपति, आसन्न उपकारी भगवान् महावीर की स्तुति की गई है। यह स्तुति, भगवान् महावीर को किया गया एक नमस्कार भी भव्यात्माओं को संसार-समुद्र से पार कर देता है, इस बात की सूचक है। १०. अधिकार-उज्जितसेलसिहरे.....नमंसामि । यह अधिकार तीन लोक के तिलक समान भगवान नेमिनाथ की स्तुति रूप है। ११. अधिकार-चत्तारि.....मम दिसंतु। इस अधिकार में मोक्ष की याचना करते हुए चौबीस तीर्थकर परमात्मा का ध्यान-चिन्तन किया गया है। १२. अधिकार-वेयावच्चगराणं.काउस्सग्गं, स्तुतिपर्यंत । यह अधिकार सम्यग्दृष्टि देवताओं के स्मरण रूप है ।। ८५-८६ ॥ वन्दनीय की अपेक्षा अधिकारों का वर्गीकरणप्रश्न-किस अधिकार से किसको वन्दन होता है ? उत्तर-पहले, छटे, नौवें, दशवें व ग्यारहवें अधिकार में भावजिन की वन्दना है। भावजिन–तीनों लोकों को चमत्कृत करने वाले, आर्यजनों के नेत्रों को आनन्द देने में परम-उत्सवतुल्य, अपार संसार रूपी समुद्र में डूबते हुए आत्मा को तिराने में नौका समान, कल्पवृक्ष और चिन्तामणिरत्न से भी अधिक महिमामय, निर्मल केवल ज्ञान के आलोक से लोकालोक के स्वरूप को देखने वाले, अष्टप्रातिहार्य रूप अद्भुत समृद्धि का उपभोग करने वाले तीर्थकर परमात्मा 'भावजिन' कहलाते हैं। तृतीय अधिकार में अभिप्रेत देवगृहादि में प्रतिष्ठित जिन प्रतिमा की वन्दना है। पञ्चम अधिकार में भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक देवों के विमान में प्रतिष्ठित, नन्दीश्वर, मेरुपर्वत, कुलगिरि, अष्टापद, सम्मेतशिखर, शत्रुजय, गिरनार आदि तीर्थों पर विराजित तथा तीनों लोकों में स्थित शाश्वत-अशाश्वत देवगृहों में स्थापित जिन प्रतिमाओं को वन्दना है। सातवें अधिकार में सम्पूर्ण कुमत रूपी अन्धकार को नाश करने वाले सम्यग् ज्ञान का स्मरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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