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________________ प्रवचन-सारोद्धार :: : आठवें, दूसरे, चौथे व बारहवें अधिकार में क्रमश: सिद्ध परमात्मा, द्रव्यजिन, नामजिन व वैयावृत्य करने वाले सम्यग्दृष्टि देवताओं का स्मरण है। . मूल में 'वेयावच्चगरसुरे सरेमि' ऐसा पाठ है इसका अर्थ है वन्दनीय के रूप में स्मरण करता हूँ ।। ८७-८८ ॥ प्रश्न-इस प्रकार विधि शुद्ध चैत्यवन्दन अहोरात्रि में साधु एवं श्रावक के द्वारा कितनी बार करना चाहिये? उत्तर-साधु अहोरात्रि में सात बार चैत्यवन्दन करते हैं१. प्रात: प्रतिक्रमण में, २. मन्दिर में, ३. भोजन से पूर्व, ४. भोजन के बाद (चैत्यवन्दन करके प्रत्याख्यान), ५. सायं प्रतिक्रमण में, ६. सोते समय (संथारा पोरिसी का), ७. जगने के बाद । श्रावक अहोरात्रि में सात, पाँच या तीन बार चैत्यवन्दन करते हैं. दोनों समय प्रतिक्रमण करमै वाले श्रावक को साधु की तरह सात बार, जो प्रतिक्रमण नहीं करते वे पाँच बार तथा अन्य श्रावक तीन बार चैत्यवन्दन करते हैं। जघन्य से श्रावक को त्रिकाल चैत्यवन्दन तो अवश्य करना ही चाहिये। ८९-९१ ।। त्रिविध चैत्यवन्दन : चैत्यवन्दन तीन प्रकार के हैं :१. जघन्य चैत्यवन्दन–'नमो अरिहंताणं' यह एक पद अथवा भावपूर्ण स्तुति बोलकर । अन्य मतानुसार-मात्र प्रणाम करने से ही जघन्य चैत्यवन्दन होता है। प्रणाम के पाँच प्रकार हैं:(i) एकाङ्ग- सिर झुकाना (ii) द्वयंगदोनों हाथ जोड़ना (iii) व्यंग- दो हाथ व मस्तक झुकाना (iv) चतुरंग---दोनों घुटने व हाथ नमाना (v) पञ्चाङ्ग- दो हाथ, दो पाँव तथा सिर झुकाना। २. मध्यम चैत्यवन्दन–अरिहंत चेइयाणं व स्तुति द्वारा। जैसे वर्तमान में अरिहंतचेइयाणं-अन्नत्थ-काउस्सग्ग (१ नवकार का) करके एक स्तुति बोलते हैं वह मध्यम चैत्यवन्दन अन्य मतानुसार-अन्य विद्वान् मूलश्लोकगत दण्डकथुइजुयल-मज्झिमा इसका अर्थ इस प्रकार करते हैं:- दण्डक अर्थात् शक्रस्तवादि पाँच दण्डक, स्तुतियुगल अर्थात् स्तुति चतुष्टय-चारथुई। पाँच दण्डक व चार स्तुतियों के द्वारा जो वन्दना की जाती है वह मध्यम चैत्यवन्दन है। ३. उत्कृष्ट चैत्यवन्दन-विधिपूर्वक शक्रस्तवादि दण्डक से लेकर 'जयवीयराय' पर्यन्त करना उत्कृष्ट चैत्यवन्दन है। अन्य मतानुसार—पाँच शक्रस्तव' द्वारा उत्कृष्ट चैत्यवन्दन होता है। प्रश्न-पाँच शक्रस्तव किस प्रकार बोले? उत्तर-परमात्मा का उत्कृष्ट चैत्यवन्दन करने का इच्छुक साधू या श्रावक मन्दिर में जाकर सर्वप्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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