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द्वार १-२
भूमि की प्रतिलेखना कर, परमात्मा की मूर्ति में नयन व मन को एकाग्र करते हुए, संवेग और वैराग्य से रोमाञ्चित शरीर वाला, हर्षावेश से अश्रुपूरितनेत्रकमलवाला, परमात्मा के चरण की वन्दना करने का अवसर मिलना अति दुर्लभ है ऐसा मानने वाला, अङ्गोपाङ्ग का संकोच कर योगमुद्रा से परमात्मा के सम्मुख शक्रस्तव (१) बोले। तत्पश्चात् इरियावहि....अन्नत्थ...पच्चीस श्वासोच्छ्वास प्रमाण (अर्थात् चन्देसु निम्मलयरा तक एक लोगस्स गिने) काउस्सग्ग....प्रकट 'लोगस्स' कहे। तत्पश्चात् दोनों घुटनों को भूमि पर टिकाकर करबद्ध, सुकविकृत जिनेश्वरदेव का चैत्यवन्दन....किचि....शक्रस्तव (२) ..... अरिहंतचेइयाणं....अन्नत्थ....एक नवकार का काउस्सग्ग....स्तुति, लोगस्स....सव्वलोए अरिहंतचेइयाण.... अन्नत्थ.... एक नवकार का काउस्सग्ग....स्तुति, पुक्खरवरदीवड्डे....सुअस्सभगवओ करेमि काउस्सग्गं, ...अन्नत्थ...एक नवकार का काउस्सग्ग....स्तुति, सिद्धाणं बुद्धाणं....वेआवच्चगराण....अन्नत्थ....एक नवकार
का काउस्सग्ग....चौथी स्तुति, शक्रस्तव (३) पुन: इसी क्रम से काउस्सग्ग....स्तुति....लोगस्स आदि । चौथी स्तुति के पश्चात् शक्रस्तव (४) जावंति चेइआई....जावंत केवि साह....भव्य स्तोत्र-स्तवन....जयवीयराय बोलकर पुन: शक्रस्तव (५) कहे। यह उत्कृष्ट चैत्यवन्दन है। यह इरियावहि प्रतिक्रमणपूर्वक ही होता है जबकि जघन्य और मध्यम चैत्यवन्दन में यह नियम नहीं है ।। ९२ ।।
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२. द्वार :
वन्दनक
मुहणंतयदेहावस्सएसु पणवीस हुंति पत्तेयं । छट्ठाणा छच्च गुणा छच्चेव हवंति गुरुवयणा ॥ ९३ ॥ अहिगारिणो य पंच य इयरे पंचव पंच पडिसेहा। एक्कोऽवग्गह पंचाभिहाण पंचेव आहरणा ॥ ९४ ॥ आसायण तेत्तीसं दोसा बत्तीस कारणा अट्ठ। बाणउयसयं ठाणाण वंदणे होइ नायव्वं ॥ ९५ ॥ दिट्ठिपडिलेहणेगा नव अक्खोडा नवेव पक्खोडा। पुरिमिल्ला छच्च भवे मुहपुत्ती होई पणवीसा ॥ ९६ ॥ बाहूसिरमुहहियये पाएसु य हुंति तिन्नि पत्तेयं । पिट्ठीइ हुंति चउरो, एसा पुण देह-पणवीसा ॥ ९७ ॥ दुओणयं अहाजायं किइकम्मं बारसावयं । चउस्सिरं तिगुत्तं च दुपवेसं एगनिक्खमणं ॥ ९८ ॥
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