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प्रवचन-सारोद्धार
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अधिकार १२.
अधिकार अर्थात् प्रस्ताव विशेष । विषय विशेष को लेकर कहना अधिकार कहलाता है। १. शक्रस्तव
= २ अधिकार। २. अरिहंतचेइयाणं = १ अधिकार । ३. लोगस्स
= २ अधिकार। ४. पुक्खरवरदीवड्डे = २ अधिकार। ५. सिद्धाणं
= ५ अधिकार ।। ८४ ।। १. अधिकार-नमुत्थुणं.....जियभयाणं ।। इस अधिकार में सिद्धिगति को प्राप्त हुए भाव अर्हन्तों को नमस्कार किया गया है। २. अधिकार-जे अ अईया सिद्धा.....वंदामि।
इस अधिकार में द्रव्य अर्हन्तों को वन्दना की गई है। जो चौतीस अतिशयों की सम्पदा को प्राप्तकर सिद्ध हो चुके हैं अथवा भविष्य में अतिशय-सम्पदा को प्राप्त होंगे, वे द्रव्य-अर्हन्त कहलाते हैं। इसे अधिकार में उन्हें ही वन्दना की जाती है। कहा है-“जो भूत या भावी पदार्थ का कारण है, वह चाहे चेतन हो या अचेतन, तत्त्वज्ञों ने उसे ही द्रव्य माना है।"
प्रश्न-द्रव्य अरिहंत भी अर्हद्भाव को प्राप्त होने पर ही वन्दनीय माने जाते हैं और वह प्रथम अधिकार का विषय है। अत: ‘जे अ अईआ सिद्धा' से पुन: उन्हें वन्दना करना पुनरुक्त नहीं होगा क्या ?
उत्तर-वर्तमान या भावी जिन अर्हदवस्थापन्न ही वन्दनीय हैं, नहीं कि नरकादि पर्याय में रहे हुए, यह विशेष सूचित करने के लिए ही द्वितीय अधिकार है।
३. अधिकार--अरिहंत चेइयाणं.....ठामि काउस्सग्गं । यह अधिकार देवगृहादि में विराजमान जिनप्रतिमाओं के वन्दन रूप है। ४. अधिकार-लोगस्स उज्जोअगरे..सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु।
इस अधिकार से अवसर्पिणी काल में हुए ऋषभादि २४ तीर्थंकर परमात्मा, जो भव्यात्माओं के भवसम्बन्धी सकल क्लेश के नाशक हैं, उनकी नामोत्कीर्तन पूर्वक स्तवना की गई है।
५. अधिकार-सव्वलोए अरिहंतचेइयाणं....ठामि काउस्सग्गं।
यह अधिकार ऊर्ध्व, अधो व मध्यलोकवर्ती शाश्वत-अशाश्वत जिनालयों में विराजमान जिन प्रतिमाओं की वन्दना रूप है।
६. अधिकार-पुक्खरवरदीवड....नमसामि । यह अधिकार ढ़ाईद्वीपवर्ती भावजिनेश्वरों की स्तवनारूप है। प्रश्न-प्रस्तुत 'श्रुतस्तव' के अधिकार में अप्रस्तुत 'जिनस्तव' करना कैसे उचित होगा? उत्तर-श्रुत के मूलकारण तीर्थंकर भगवन्त हैं। कहा है अत्थं भासइ अरिहा। सूत्रकर्ता गणधर
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