________________
३०
द्वार १
के अनेकों संशयों को दूर करने वाली वाणी रूप भागीरथी को प्रवाहित कर, क्रूर कर्म रूपी पिशाच की जंजीरों से जकड़े हुए तथा अनन्त जन्म-मरण के जालिम दुःखों को भोगने वाले भव्यात्माओं को सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति आदि के पुनीत-पथ पर प्रयाण करा कर उन्हें अनन्त कल्याण के भागी बनाये, ऐसी यथार्थ लोकोत्तरचर्या को धारण करने वाले प्रभु ! आपका दर्शन धन्य पुरुष ही पा सकते हैं।
अहो प्रभो ! सर्वश्रेष्ठ तीर्थंकर नाम कर्म के पुण्य प्रभाव से त्रिभुवन में अपूर्व गरिमामय कैसी आपकी अर्हत्संपदा ! तीनों जगत के जीवों की दृष्टि को अपार आनन्द देने वाली कैसी आपकी भव्य देह मुद्रा ! जीवों के मोहमल को दूर करने वाली कैसी आपकी वचन चातुरी ! सद्गुणों से अनुप्राणित
और जगत को वश करने वाला कैसा आपका भव्य चारित्र ! वस्तुत: वीतराग परमात्मा की सर्वज्ञ तीर्थंकर अवस्था अनन्त उपकारक और अगम अगोचर है।
३. सिद्धावस्था-हे भगवन्त ! आपके सिद्धस्वरूप का ध्यान धन्य आत्मा ही कर सकते हैं। हे सिद्ध प्रभु ! आप लोकालोक प्रकाशक, अनन्त कालीन ज्ञेय पदार्थों के ज्ञाता, अप्रतिहत केवलज्ञान से सम्पन्न हैं। आप उत्तम, निर्दोष अनन्त दर्शन के धारक हैं। आप अनन्त, अमेय सुख के स्वामी एवं अनन्त शक्ति के मालिक हैं । आपकी महिमा अनन्त और अद्भुत है। ऐसी सिद्धावस्था की कल्पना भी अधन्य पुरुष, निष्पुण्य आत्मा नहीं कर सकते तो उसके ध्यान की तो बात ही कहाँ है? छठा दिशात्याग त्रिक
दर्शन-पूजन आदि करते समय मन को अधिक एकाग्र करने के लिये एक दिशा को छोड़कर (जिस ओर प्रभु की मूर्ति हो) अन्य सभी दिशाओं में देखने का त्याग करना। अन्यथा परमात्मा के प्रति, क्रिया के प्रति अनादर होगा। सातवाँ प्रमार्जन त्रिक
____ जीवों की रक्षा के लिए चैत्यवन्दन करने के स्थान को प्रथम चक्षु से देखकर फिर वस्त्र से अथवा रजोहरण से तीन बार प्रमार्जन करके बैठना। आठवाँ वर्णादि त्रिक
चैत्यवन्दन करते समय 'अ' 'क' आदि अक्षर, अर्थ एवं प्रतिमा इन तीनों में उपयुक्त रहना। • आलम्बन-अष्टप्रातिहार्यरूपी महाविभूति द्वारा जगत् के जीवों को विस्मित करने वाले, कमनीय
कान्तिवाले, सभा जनों को विकस्वर नेत्रों से देखते हुए आप ऐसे प्रतीत हो रहे हो मानो उन्हें अमृत के प्रवाह से सींच रहे हो, समृद्धि के कारणभूत, देवेन्द्रों व मनुष्यों द्वारा बड़े
हर्षपूर्वक सेवित, श्रेष्ठ महिमावाले ऐसे परमात्मा का आलम्बन लेकर चैत्यवन्दन करना चाहिये। नौवां मुद्रा त्रिक
मुद्रा = हस्त आदि शरीर के अवयवों का आकार विशेष । इसके तीन भेद हैं(i) जिनमुद्रा, (ii) योगमुद्रा, (iii) मुक्ताशुक्ति मुद्रा।। (i) जिनमुद्रा—यह मुद्रा पाँवों से सम्बन्धित है। दोनों पैरों के अग्र-भाग में चार अङ्गल का और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org