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प्रवचन-सारोद्धार
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पकार
कार:
इस प्रकार अर्थगर्भित स्तोत्र के द्वारा परमात्मा की गुणोत्कीर्तन रूप पूजा करनी चाहिये । परन्तु लज्जा-अपमङ्गलकारक व क्लेशदायक स्तोत्र परमात्मा के सन्मुख नहीं बोलना चाहिये। यथा—'रतिक्रीडा के अन्त में एक हाथ से शेषनाग पर भार देकर खड़ी होती हुई तथा दूसरे हाथ से अपने वस्त्रों को व्यवस्थित करती हुई, बिखरे हुए बालों की लटों के भार को खम्भे पर वहन करती हुई, अत्यन्त कान्तिमान तथा रतिक्रीड़ा से प्रसन्न बने कृष्ण के द्वारा आलिंगन देकर पुन: शय्या पर लाई गई लक्ष्मी का देह तुम्हें पवित्र बनावे ।' ऐसे अप्रसिद्ध व अस्पष्ट शब्दों वाली स्तुति कदापि परमात्मा के सम्मुख नहीं करनी चाहिये।
परमात्मा की 'त्रिविध पूजा' में उपलक्षण से अष्टप्रकार की पूजा भी आ जाती है। अष्टप्रकारी पूजा १. जल पूजा, २. चन्दन पूजा, ३. पुष्प पूजा, ४. धूप पूजा, ५. दीप पूजा, ६. अक्षत पूजा, ७. नैवेद्य पूजा, ८. फल पूजा। पाँचवाँ अवस्था त्रिक
परमात्मा की (१) छद्मस्थ अवस्था, (२) कैवल्य अवस्था एवं (३) सिद्ध-अवस्था के स्वरूप का चिन्तन करना। १. छद्मस्थावस्था
(i) बाल्यावस्था—अहो प्रभु ! आप सचमुच में पुरुषोत्तम हैं। जन्म समय में ५६ दिक्कुमारियों, देवों और देवेन्द्रों ने बड़े समारोह के साथ त्रैलोक्यनाथ के रूप में आपकी पूजा की। मेरु-पर्वत पर करोड़ों देवताओं ने आपका महा-अभिषेक किया। पुण्य की सर्वोच्च स्थिति में एवं अनुपम सम्मान के समय भी आपको अहंकार का लेश नहीं छू सका। धन्य है आपकी महानता को । (यह प्रस्तुत ग्रन्थ में नहीं है)
(ii) राज्यावस्था-परम-प्रभु ! मदोन्मत्त हाथी, हेषारव करते हुए घोड़े, हर्षोल्लास को बढ़ाने वाली सुन्दरियाँ एवं अथाह सुख-वैभव से परिपूर्ण साम्राज्य का स्वामित्व पाकर भी आप असंग और अनासक्त रहे। ऐसे अचिन्त्य महिमासंपन्न प्रभु ! आपका दर्शन धन्यात्मा ही कर पाते हैं।
(iii) श्रमणावस्था इसी भव में केवलज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति निश्चित है, ऐसा जानते हुए भी मेरे प्यारे प्रभु ! आपने जो कठोर चारित्रमार्ग की आराधना की, सतत धर्मध्यान में मग्न रहे, शत्रु-मित्र पर समान भाव रखा, निर्मल चार ज्ञान को धारण किया, तृण, मणि, सुवर्ण, पाषाण को समानरूप से निहाला, अनासक्त भाव से विचरण किया, निदान रहित विविध प्रकार का उग्र तप किया, असह्य-परिषह-उपसर्ग में भी आपकी हृदय रूप गुफा और मुख मुद्रा से सदा प्रशान्तरस छलकता रहा . . . ऐसे प्रभु ! आपका दर्शन उत्कट पुण्यशाली आत्मा ही पा सकते हैं।
२. कैवल्य अवस्था- हे त्रिजगगुरु ! अनादिकालीन रागादि शत्रुओं का नाशक जो प्रबल-पुरुषार्थ आपने किया, लोकालोक को प्रकाशित करने वाली अनन्त ज्ञान की ज्योति जलाई, देवेन्द्रों की प्रार्थना से देवों द्वारा रचित दिव्य समवसरण में विराजित होकर भव्य-धर्म शासन की स्थापना की तथा भव्यात्माओं
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