________________
Re
द्वार १
चौथा पूजा त्रिक
(१) विविध जाति वाले, सुगन्धी पुष्पादि द्वारा- अङ्गपूजा । (२) उत्तम अक्षत-चावलों द्वारा- अग्रपूजा।
(३) जिनेश्वर परमात्मा के अलौकिक यथार्थ गुणों से भरपूर एवं संवेगजनक स्तुतिओं द्वारा भगवान की पूजा करना- भावपूजा।
'पुष्पादि' में आदि शब्द से अनुपम रत्न, सुवर्ण, मुक्ता के आभरणों से प्रतिमा को अलंकृत करना, विचित्र और पवित्र वस्त्रों से परमात्मा की शोभा बढ़ाना, सरसों, अक्षत आदि उत्तम धान्यों से प्रभु के सन्मुख अष्ट मङ्गल की रचना करना, बलि, औषधि युक्त जल, मङ्गलदीप, दही, घी आदि पदार्थों को परमात्मा के सामने रखना. भगवान के भाल पर गोरोचन-कस्तरी आदि सुगन्धि-द्रव्यों से तिलक करना, परमात्मा की आरती उतारना इत्यादि भी समझ लेना चाहिये।
पूर्वमहर्षियों का भी कथन है कि- 'सुगन्धी धूप, औषधि मिश्रितजल, सुगन्धी विलेपन, उत्तम पुष्पों की माला, बलि, दीपक, सुवर्ण , रल और मोती की मालाओं से परमात्मा का पूजन-अलङ्करणादि करना चाहिये । प्राय: देखा जाता है कि उत्तम साधनों के आलंबन से भाव भी उत्तम बनते हैं। जिनेश्वर देव की पूजा में उत्तम भावों की वृद्धि के लिये ही उत्तम साधनों की आवश्यकता है। इससे अन्य उनका कोई उपयोग नहीं है।'
परमात्मा की पूजा कर लेने के बाद इरियावहियं प्रतिक्रमणपूर्वक शक्रस्तवादि दण्डक सूत्रों से 'चैत्यवन्दन' करके श्रेष्ठ कवि द्वारा निर्मित स्तोत्र से परमात्मा का गुणोत्कीर्तन करना चाहिये। परमात्मा का स्तोत्र कैसा होना चाहिये ? (१) परमात्मा के शारीरिक गुणों का सूचक, (२) गंभीर, (३) विविधवर्णसंयुक्त,
(४) भाव-विशुद्धि का कारण, (५) संवेगपरायण,
(६) पवित्र, (७) अपने पाप निवेदन से युक्त,
(८) प्रणिधान पुरस्सर, (९) विचित्र अर्थयुक्त,
(१०) अस्खलितादि गुणयुक्त, (११) महान् बुद्धिशाली कवि द्वारा रचित स्तोत्र से परमात्मा की स्तुति करनी चाहिये।
स्नेहीजनों को देखकर जिनकी आँखों में कभी हर्ष के आँसू नहीं छलके, कष्ट देने वाले शत्रुओं को देखकर जिनकी आँखों में कभी क्रोध नहीं झलका, ध्यानबल से जिनकी आँखों ने समस्त जगत को देखा है, कामदेव के विजेता ऐसे श्री वर्धमान परमात्मा के नेत्र सभी का चिरकाल तक कल्याण करे।
करोड़ों स्वर्णमुद्राओं के दान द्वारा सम्पूर्ण विश्व की दरिद्रता दूर करने वाले, मोह के वंशज अंतर शत्रुओं का नाश करने वाले, निस्पृहभाव से केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिये दुष्कर तप करने वाले, इस प्रकार त्रिविध वीरयश के धारक, त्रैलोक्यगुरु श्री वर्धमान स्वामी की जय हो।
हे कृपारसनिधि ! संसार रूपी मरुस्थल में पड़े हुए, नारी रूप मृगमरीचिका में मुग्ध बने हुए मुझे आपके दर्शन प्राप्त हुए हैं। हे जिनेश्वर ! अब आप मेरी तृष्णाजन्य पीड़ा को दूर करके मुझे शान्ति प्रदान करें।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org