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प्रवचन - सारोद्धार
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पीछे भाग में किञ्चित् न्यून अन्तर रखते हुए कायोत्सर्ग आदि करना । 'अरिहंत चेइयाणं' वगैरह सूत्र जिनमुद्रा और योगमुद्रा में बोले जाते हैं ।
(ii) योगमुद्रा — यह मुद्रा हाथों से सम्बन्धित है । परस्पर एक- दूसरे हाथ की अङ्गुलियों के बीच में अङ्गुलियाँ डालकर 'कमल कोष' की तरह दोनों हथेलियों को जोड़कर दोनों कुहनियों को पेट पर लगा देना योगमुद्रा है । शक्रस्तवादि स्तवना सूत्र योगमुद्रा द्वारा बोले जाते हैं।
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(iii) मुक्ताशुक्ति मुद्रा - यह मुद्रा भी हाथों से सम्बन्धित है। दोनों हाथों की अंगुलियों को एक दूसरे के अन्तराल में डाल कर मोती की 'सीप' की तरह दोनों ओर से हाथों को उभारकर जोड़ते हुए 'भाल' पर लगाना। इस मुद्रा से प्रणिधान सूत्र (जावंति - चेइआई, जावंत केवि साहू तथा जयवीयराय) बोले जाते हैं । कुछ आचार्यों के मतानुसार हाथ दोनों आँखों के मध्य भाग में रखकर 'जयवीयराय' बोलना चाहिये ।
पञ्चाङ्ग प्रणिपात — दोनों जानु + दोनों हाथ + मस्तक इन पाँचों से भूमितल को छूते हुए प्रणिपात
नमस्कार करना ।
(प्रणिपात दण्डकसूत्र के प्रारम्भ में तथा अन्त में किया जाता है) योगमुद्रादि की तरह अङ्गविन्यास विशेष रूप होने से पञ्चाङ्गी भी एकमुद्रा है 1
दशवाँ प्रणिधान त्रिक
कायिक-वाचिक एवं मानसिक अप्रशस्त व्यापार से निवृत्त होकर प्रशस्त व्यापार में प्रवृत्त होना, प्रणिधान कहलाता है । शरीर को सुसंवृत करके कमल - कोष की तरह हाथों को जोड़कर, मन-मन्दिर में अचिन्त्य - चिन्तामणि, सुन्दर चरित्रवाले, वन्दनीय अरिहंत परमात्मा को स्थापित कर मधुरवाणी द्वारा उनकी स्तुति करना । हे त्रिजगत्पति ! हे जगत् जन्तुओं के शरणभूत ! आपकी कृपा से मेरे अन्दर विवेक जागृत हो, इस संसार से वैराग्य हो, संयम के प्रति प्रीति उत्पन्न हो और गुणार्जन के साथ-साथ परोपकार करने का शुभ प्रयास भी जगे ॥ ६६-७६ ॥ विधि-विशेष
उत्कृष्टत:
संपदा
• नमस्कार
• इरियावहियं
• नमुत्थुणं • अरिहंतचेइयाणं
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अवग्रह का पालन उच्छ्वास - निश्वासादि से होने वाली आशातनाओं के परिहार के लिये आवश्यक है || ७७ ॥
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प्रभु के दर्शन करते समय पुरुष वर्ग भगवन्त की प्रतिमा के दाहिनी तरफ और स्त्रियाँ बाई तरफ खड़ी रहें ।
भगवान् से ६० हाथ दूर, और जघन्यतः नौ हाथ दूर खड़े रहकर चैत्यवन्दनादि करना चाहिये ।
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सूत्र बोलते समय ठहरने के स्थान को 'सम्पदा' कहते हैं ।
८ सम्पदा
८ सम्पदा
९ सम्पदा
८ सम्पदा
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