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________________ २६ द्वार १ आठवें में सिद्ध की, दूसरे में द्रव्य अरिहंत की, चौथे में नाम जिन की स्तुति एवं बारहवें में वैयावच्च करने वाले देवों का स्मरण है ।। ८७-८८ ॥ कौन कितनी बार चैत्यवंदन करता है ? --अहोरात्रि में मुनियों के सात वार, श्रावकों के सात, पाँच या तीन वार चैत्यवन्दन होते हैं ।। ८९ ॥ १. सुबह प्रतिक्रमण में, २. मन्दिर में, ३. पच्चक्खाण पालते समय, ४. गौचरी करने के बाद ५. दैवसिक प्रतिक्रमण में, ६. संथारा पोरिसी करते समय, ७. सवेरे उठने के पश्चात्। मुनियों के ये सात चैत्यवन्दन होते हैं। ९० ॥ दोनों समय प्रतिक्रमण करने वाले श्रावक के मुनियों की तरह सात चैत्यवन्दन होते हैं। जो श्रावक उभयसन्ध्य प्रतिक्रमण नहीं करता उसके पाँच वार तथा जघन्य तीन बार (त्रिसन्ध्य मन्दिर जाने वाले के) चैत्यवन्दन होते हैं ।। ९१ ।। (१) जघन्य चैत्यवन्दन- 'नमो अरिहंताणं' ऐसा बोलना जघन्य चैत्यवन्दन है। चैत्यवन्दन, दण्डक तथा स्तुतियुगल बोलना मध्यम चैत्यवन्दन है। विधिपूर्वक पाँच शक्रस्तव रूप उत्कृष्ट चैत्यवन्दन है॥ ९२॥ -विवेचन'निस्सीहि' आदि दश त्रिकों सहित, उपयोगपूर्वक जो व्यक्ति जिनेश्वरदेव की त्रिकालस्तुति, चैत्यवन्दनादि करता है, वह विपुल निर्जरा का भागी बनता है और अन्त में शाश्वतस्थान अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है। प्रत्येक त्रिक का वर्णन आगे विस्तार से किया जायेगा। यहाँ चैत्यवन्दन की विधि ही बताई जायेगी। सूत्रों की व्याख्या नहीं। जिज्ञासु आत्मा को ललितविस्तरादि ग्रन्थों से सूत्रों की व्याख्या जाननी चाहिये । वन्दनक सूत्रादि के विषय में भी यही ज्ञातव्य है। चैत्यवन्दन करने का इच्छुक, महर्द्धिक श्रावक शासन प्रभावना के लिये योग्य आभरणादि पहिनकर अपनी सर्वऋद्धि, सर्वबल और पुरुषार्थ के साथ मन्दिर में जाय (चैत्यादि में 'आदि' से उपाश्रय समझना) । किन्तु सामान्य वैभववाला मनुष्य अपनी योग्यतानुसार मन्दिर आदि में जाय, अर्थात् वेष-परिधानादि में उद्भट न बने (अपने वैभव और मर्यादा के अनुकूल वस्त्र पहिने) ताकि लोकों में उपहास न हो। चैत्यप्रवेश विधि (१) पुष्प, तांबूल आदि सचित्त द्रव्यों का त्याग कर (२) कडे-कुण्डलादि अचित्त अलङ्करणों को धारणकर (३) कटिभाग में एकवस्त्र और ऊपर एक उत्तरासंग वस्त्र पहिनकर (यह विधि मात्र पुरुषों के लिए है। स्त्रियाँ विशेष वस्त्रों से आवृत तथा विनय से अवनत हो मन्दिर में प्रवेश करें।) (४) जिन प्रतिमा दिखाई देते ही सिर पर अञ्जलि करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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