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प्रवचन-सारोद्धार
देवाणं पवियारो सरूवमट्ठण्ह कण्हराईणं । सज्झायस्स अकरणं नंदीसरदीवठिइभणणं ॥६३ ॥ लद्धीओ तव पायालकलस आहारगस्सरूवं च । देसा अणायरिया आरिया य सिद्धगतीसगुणा ॥६४ ॥
२७६. द्वारनाम
१. चैत्यवन्दन
२. वन्दनक
संक्षिप्त अर्थ - सर्व कल्याण का मूल होने से प्रथम यह द्वार दिया गया। चित्तस्य
भावा: कर्माणि वा, (चित्त के भाव अथवा क्रिया) इस अर्थ में 'वर्णदृढ़ादिभ्य: ष्यजि' इस सूत्र से 'चित्त' शब्द से ष्यञ् प्रत्यय होकर चैत्य शब्द बना है। इसका अर्थ है 'जिनप्रतिमा' यद्यपि वे प्रतिमायें चन्द्रकान्तमणि, सूर्यकान्तमणि, मरकतमणि, पन्ना, मोती व पत्थर आदि से निर्मित होती हैं तथापि भाव व क्रिया से चित्त में 'ये साक्षात् तीर्थंकर परमात्मा ही हैं' ऐसी बुद्धि पैदा करने से चैत्य कहलाती हैं। उन चैत्यों का एकाग्रतापूर्वक वन्दन-स्तवन करना चैत्यवन्दन है। इस द्वार में 'चैत्यवन्दन' की विधि बताई
गई है। - जिसमें वन्दन करने योग्य 'गुरु' की वन्दन विधि बताई गई है
वह 'वन्दनक' द्वार है। - प्रति = प्रतिकूल, क्रमण = लौटना, अशुभयोग में प्रवृत्त आत्मा
की पुन: शुभयोग में प्रवृत्ति होना प्रतिक्रमण है। - विवक्षित काल मर्यादा सहित अपनी इच्छाओं को रोकने का
कथन करना प्रत्याख्यान है । इसके दो भेद हैं-मूलगुण प्रत्याख्यान व उत्तरगुण प्रत्याख्यान । मूल-उत्तरगुण रूप विरतिधर्म का स्वीकार करना क्रमश: मूलगुण, उत्तरगुण प्रत्याख्यान है। उत्सर्ग अर्थात् कायोत्सर्ग, जैसे, भामा कहने से 'सत्यभामा' समझ लिया जाता है। 'कायोत्सर्ग' शब्द दो शब्दों से बना है- काया = शरीर, उत्सर्ग = त्याग, अर्थात् श्वासोश्वास, खांसी, छींक आदि १२ आगार, स्थान, मौन व ध्यान रूप क्रिया को छोड़कर अन्य शारीरिक क्रियाओं का त्याग करना कायोत्सर्ग है। गृहस्थ सम्बन्धी एक सौ चौबीस अतिचार ।
३. प्रतिक्रमण
४. प्रत्याख्यान
५. उत्सर्ग
६. व्रत अतिचार
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