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मङ्गलाचरण
हम शब्द और अर्थ के मध्य तादात्म्य या तदुत्पत्ति में से कोई भी सम्बन्ध नहीं मानते। हम शब्द और अर्थ का वाच्य-वाचक सम्बन्ध मानते हैं जिसमें किसी भी प्रकार का दोष नहीं है। .
यदि आप शब्द का प्रामाण्य नहीं मानेंगे तो आपके मतानुसार शब्द-प्रामाण्य पर आधारित विश्व का सम्पूर्ण व्यवहार ही नष्ट हो जायेगा।
'जिसमें लोक-व्यवहार का कोई अवकाश न हो, ऐसे मत को सच्चा समझना या मानना व्यामोह मात्र ही है।'
शब्द और अर्थ के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा जा सकता है, किन्तु ग्रन्थ-विस्तार के भय से यहाँ अधिक नहीं कहा गया है। (जिज्ञासु प्रमाणनयतत्त्वालोक आदि ग्रन्थ में देखें)
• जुगाईजिणं इस गाथा का 'युग' पद अवसर्पिणी (काल विशेष) का प्रतीक है। 'युगादिजिन'
का अर्थ है—अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव । यहाँ 'युगादिजिन' पद विशेषण है, इसका विशेष्यपद होना चाहिए किन्तु 'ऋषभदेव' ऐसा विशेष्य पद यहाँ अलग नहीं कहा गया, कारण जहाँ विशेषण प्रौढ़ होता है, वहाँ अलग से विशेष्यपद कहना आवश्यक नहीं होता। प्रौढ़ विशेषण से ही प्रकृत विशेष्य उपस्थित हो जाता है। जैसे—'ध्यान में लीन मन, वचन और काया के व्यापार से रहित (योगी पुरुष) एक अद्वितीय एवं निर्मल स्वरूप के दर्शन करते हैं।' यहाँ प्रौढ़ विशेषणों (Active-adjective) के सामर्थ्य से अनुक्त भी
'योगी-पुरुष' रूप विशेष्य पद स्वत: उपस्थित हो जाता है। • भव्यानां अपने स्वाभाविक सद्गुणों से मोक्ष-प्राप्ति के योग्य आत्माओं के ज्ञान के लिये। • प्रवचनसारोद्धारं-प्रवचन = द्वादशांगी के सारभूत कतिपय विषयों का उद्धरणरूप/निचोडरूप
प्रस्तुत ग्रन्थ। • गुरूपदेशाद् = गुरु के उपदेश से। • समासेण = संक्षेप से। • वक्ष्ये = कहूँगा। (१) युगादिदेव को नमस्कार सकल कल्याण का मूलभूत भावमंगल है। (२) 'भव्यों के ज्ञान के लिये'—प्रयोजन कथन है। (३) 'प्रवचनसारोद्धार को कहूँगा'-अभिधेय कथन है।
द्वादशांगी के सारभूत पदार्थों का प्रतिपादन करने से ही भव्यजीवों को कुछ ज्ञान हो सकता है अत: उन पदार्थों का प्रतिपादन ‘सत्त्वानुग्रहरूप' है।
___भव्यजीवों पर सात्त्विक अनुग्रह करने में प्रवृत्त व्यक्ति, अवश्य अतिशय सुखसमृद्धि से भरपूर स्वर्गादि सुखों का उपभोग कर मोक्षसुख का वरण करता है। कहा है
'दुख से सन्तप्त प्राणियों पर, परमात्मा की आज्ञा के अनुरूप उपदेशदान द्वारा जो अनुग्रह करते हैं, वे अतिशीघ्र मोक्ष को प्राप्त करते हैं।'
सारभूत पदार्थों का यथार्थ ज्ञान होने पर भव्यात्माओं को स्वत: विरक्ति हो जाती है और वे
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