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मङ्गलाचरण
मंगल-अभिधेय-प्रयोजन-संबंध
(४) अपने कार्य की निर्विघ्न समाप्ति के इच्छुक विवेकी पुरुष अपने इष्टदेव को नमन करके ही शास्त्र रचनादि इच्छित कार्य में प्रवृत्त होते हैं। यद्यपि शारीरिक व मानसिक नमस्कार भी विघ्ननाश करने में समर्थ है तथापि शास्त्रश्रवण की रुचि वाले श्रोतागण सकल विघ्नसमूह के नाशक इष्ट नमस्कारात्मक मङ्गलपूर्वक ही शास्त्रश्रवण में प्रवृत्त हों, यह बात श्रोताओं को बताने के लिये शास्त्र के प्रारम्भ में वाचिक मङ्गल करना आवश्यक है।
(५) शास्त्र के प्रारम्भ में अभिधेय (विषय) का कथन अवश्य करना चाहिये, अत: उसमें बुद्धिमानों की प्रवृत्ति सुगमता से हो। यदि शास्त्र के प्रारम्भ में अभिधेय का कथन नहीं होगा तो संशय के कारण मनुष्य शास्त्र में प्रवृत्ति ही नहीं करेंगे प्रत्युत उसे निरर्थक समझेंगे। जैसेप्रतिज्ञा- प्रस्तुत शास्त्र की रचना निरर्थक है।
अभिधेय शून्य होने से। दृष्टान्त- जो अभिधेय शून्य है, वह निरर्थक है। जैसे कौए के दाँत की परीक्षा करना। कहा
• विवेकी पुरुष, प्रवृत्ति में निमित्तभूत, अभिधेय (विषय) का श्रवणकर जिज्ञासावश शास्त्र को
पढ़ने या सुनने में प्रवृत्त होते हैं। • विवेकी पुरुष, अज्ञात व अनभिप्रेत विषय में कभी प्रवृत्त नहीं होते, जैसे कौए के दाँत की
परीक्षा करना कोई नहीं चाहता।
वस्तुत: शास्त्र के प्रारम्भ में कथित अभिधेय को पढ़कर या सुनकर ही लोग जिज्ञासावश उसे पढ़ने या सुनने में प्रवृत्त होते हैं।
___ अभिधेय के साथ-साथ शास्त्र का प्रयोजन बतलाना भी आवश्यक है। बिना प्रयोजन कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति शास्त्र में प्रवृत्ति नहीं करता। कहा है— 'मूर्ख व्यक्ति भी निष्प्रयोजन प्रवृत्ति नहीं करता तो विवेकी व्यक्ति बिना प्रयोजन कैसे प्रवृत्ति करेगा?' यदि शास्त्र के प्रारम्भ में प्रयोजन नहीं दिखाया तो बुद्धिमान व्यक्ति यही कहेंगे किप्रतिज्ञा- प्रस्तुत शास्त्र की रचना निरर्थक है। हेतु- प्रयोजन शून्य होने से।
काँटों की शाखा का मर्दन करने की तरह। शास्त्र-रचना का प्रयास व्यर्थ सिद्ध न हो, इसलिये सभी शास्त्रों के प्रारम्भ में प्रयोजन अवश्य बताना चाहिये।
(६) अभिधेय और प्रयोजन के साथ शास्त्र का सम्बन्ध दिखाना अर्थात् उसे सर्वज्ञमूलक प्रमाणित करना भी आवश्यक है, क्योंकि कोई भी शास्त्र सर्वज्ञ-मूलकता के बिना विद्वानों का आदरणीय नहीं बनता। उसके लिये कहा जा सकता है कि
दृष्टांत
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