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________________ ४३० द्वार १०५-१०६ (i) जात = ज्ञानादि की सतत आराधना से आत्मलाभ प्राप्त करने वाले मुनि 'जात' कहलाते हैं। उनसे अभिन्न होने से 'कल्प' भी जात कहलाता है अर्थात् गीतार्थ का विहार 'जातकल्प' है। (ii) अजात-ज्ञानादि के द्वारा जिन्हें आत्मलाभ प्राप्त नहीं हुआ ऐसे मुनि 'अजात' कहलाते हैं। उनसे अभिन्न होने से 'कल्प' भी अजात कहलाता है अर्थात् अगीतार्थ का विहार 'अजातकल्प' है। पूर्वोक्त दोनों कल्प के दो-दो भेद हैं(i) जात समाप्त कल्प - पूर्ण सहायक युक्त गीतार्थ का विहार (ii) जातअसामाप्त कल्प -- अपूर्ण सहायक युक्त गीतार्थ का विहार (i) जात समाप्त कल्प - शीतोष्ण काल में ५ मुनियों का विहार । वर्षाकाल में ७ मुनियों का विहार, कारण कोई मुनि बीमार हो जाये तो इससे कम मुनियों में योग्य सेवा नहीं हो सकती। चातुर्मास में दूसरे स्थान से भी मुनि नहीं आ सकते। (ii) जातअसामाप्त कल्प - शीतोष्णकाल में २-३-४ मुनियों का विहार ।वर्षाकाल में ४-५ आदि मुनि । इसी तरह 'अजातकल्प' समझना। किन्तु असमाप्त-अजातकल्प वाले मुनियों को सामान्यत: क्षेत्र, क्षेत्रगत वस्त्र, पात्र, गोचरी, पानी, शयन, उपकरण, शिष्य आदि ग्रहण करना नहीं कल्पता है ।। ७८०-७८२ ।। १०६ द्वार: प्रतिस्थापन-उच्चार-दिशा दिसाऽवरदक्खिणा दक्खिणा य अवरा य दक्खिणापुव्वा। अवरुत्तरा य पुव्वा उत्तर पुव्वुत्तरा चेव ॥७८३ ॥ पउरऽन्नपाण पढमा बीयाए भत्तपाण न लहंति । तइयाए उवहिमाई नत्थि चउत्थीए सज्झाओ ॥७८४ ॥ पंचमियाए असंखडी छट्ठीए गणस्स भेयणं जाण । सत्तमिया गेलन्नं मरणं पुण अट्ठमे बिंतिं ॥७८५ ॥ दिसिपवणगामसूरियच्छायाए पमज्जिऊण तिक्खुत्तो। जस्सोग्गहोत्ति काऊण वोसिरे आयमेज्जा वा ॥७८६ ॥ उत्तरपुवा पुज्जा जम्माए निसायरा अहिपडंति । घाणारिसा य पवणे सूरियगामे अवन्नो उ ॥७८७ ॥ संसत्तग्गहणी पुण छायाए निग्गयाए वोसिरइ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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