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इससे शरीर पुष्ट बनेगा अथवा मास-कल्प से अधिक कहीं भी नहीं रहूँगा तो लोग मुझे उद्यत - विहारी कहेंगे, ऐसे भाव न रखते हुए विहार करना ।
द्रव्य, क्षेत्र आदि का प्रतिबन्ध रखते हुए विहार करना या रहना साधु को नहीं कल्पता है ॥ ७७२ ॥
प्रश्न – चातुर्मास के सिवाय साधु एक महीने से अधिक किसी भी क्षेत्र में निष्कारण नहीं रह सकता। शेष काल में मास - कल्पी - विहार को छोड़कर विहार का कोई दूसरा प्रकार शास्त्र में नहीं बताया गया है, तो यहाँ “ मासाई विहारेणं विहरेज्ज जहोचियं नियमा" इस गाथा में आदि पद क्यों दिया ?
द्वार १०४
उत्तर - यद्यपि शेषकाल में साधु के लिये मास- कल्पी विहार की ही अनुज्ञा दी गई है तथापि कारणवश न्यूनाधिक रहना भी कल्पता है। जैसे दुष्काल होने से दूसरे क्षेत्र में भिक्षा मिलना दुर्लभ हो....अन्य क्षेत्र संयम पालन के अनुकूल न हो... वहाँ का आहार आदि स्वास्थ्य के अनुकूल न हो...मुनि बीमार हो, दूसरे क्षेत्र में जाने से ज्ञानादि की हानि होती हो तो साधु मासकल्पी विहार न भी करे । कदाचित् मास पूर्ण होने से पूर्व ही विहार करना पड़े इस हेतु से पूर्वोक्त गाथा में 'आदि' पद दिया गया है ।। ७७३ ||
• यद्यपि मुनि कारणवश विहार नहीं कर सकता, तथापि एकस्थान में रहकर भी भाव से मासकल्प करे । उदाहरण के तौर पर मुनि प्रतिदिन जहाँ संथारा करता हो, एक महिना पूर्ण होने के बाद वह स्थान बदल ले। दूसरी रहने लायक वसति हो तो एक महीने के बाद वसति बदल ले । इस प्रकार साधु धर्म सुरक्षित रहता है ।। ७७४ ।।
एक क्षेत्र में उत्कृष्ट वास
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आषाढ़ महीने का मासकल्प जहाँ किया हो वहाँ योग्य क्षेत्र के अभाव में कदाचित् चातुर्मास भी करना पड़े, तत्पश्चात् मिगसर मास में वर्षा आदि के कारण रुकना पड़े इस प्रकार अधिक से अधिक साधु एक स्थान में छ: महीने ठहर सकता है । तत्पश्चात् कारण के अभाव में अवश्य विहार करे । अन्यथा प्रायश्चित्त का भागी बनता है ।। ७७५ ॥
मिगसर मास में वर्षा न आती हो, मार्ग वनस्पति एवं कीचड़ से रहित हो तो ऐसा समय विहार के अनुकूल होता है । ऐसे समय में यदि साधु विहार नहीं करता तो निश्चित रूप से प्रायश्चित्त का भागी बनता है ।
प्रश्न –— एक क्षेत्र में कितना भी उपयोग पूर्वक साधु क्यों न रहे किन्तु भक्तों का, वसति का प्रतिबंध हुए बिना नहीं रहता तो छ: महीने एक स्थान में रहना कैसे कल्पता है ?
उत्तर - यदि किसी प्रतिबंध से मुनि एक स्थान में निवास करते हैं तो वे अवश्य जिनाज्ञा का उल्लंघन करते हैं । किन्तु जंघाबलक्षीण होने से, अनुकूल क्षेत्र न मिलने से या अन्य किसी पुष्टालंबन से एक क्षेत्र में निवास करे तो कोई दोष नहीं लगता ।। ७७६ ।।
आलम्बन = गिरते को सहायक । यह द्रव्य, भाव, पुष्ट और अपुष्ट के भेद से चार प्रकार का होता है—
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