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________________ प्रवचन-सारोद्धार ४२७ मासकल्प को छोड़कर आगम में अन्य विहार का विधान नहीं है। तब 'मासाइ' में आदि शब्द का ग्रहण क्यों किया? कारणवशात् कभी मास से पूर्व अथवा मास के बाद भी विहार हो सकता है। यह सूचित करने के लिये आदि शब्द ग्रहण किया है ।।७७३ ।। काल आदि के दोषवश यदि मासकल्प द्रव्य से न भी हो तो भी शयनभूमि आदि बदलकर भाव से तो मासकल्प अवश्य ही करे ।।७७४ ॥ मासकल्प करने के पश्चात् वहीं पर चातुर्मास किया हो और मिगसर महीने का मासकल्प भी कारणवश वहीं करना पड़ा हो तो सालंबनपूर्वक उत्कृष्ट कालावग्रह छ: मास का भी होता है॥७७५ ।। यदि विहार की अनुकूलता हो तो कार्तिक पूर्णिमा के पश्चात् तुरन्त विहार कर देना चाहिये। यदि विहार न करे तो सूत्रनिर्दिष्ट प्रायश्चित्त आता है ।७७६ ॥ . विशुद्ध आलंबन वाले, एक ही क्षेत्र में रहने वाले मुनि यद्यपि कालातिक्रान्तचारी हैं तथापि वे विशुद्धचारित्री हैं, शुद्धालंबनी होने से ।।७७७ ।। दुर्गमस्थान में गिरते हुए आत्मा का जो सहायक बनता है वह आलंबन कहलाता है। जो अशठभाव हौ झालंबन का उपयोग करता है वह आलंबन-सेवी कहलाता है ।।७७८ ॥ शासन की परम्परा को अव्यवच्छिन्न रखने के लिये, अध्ययन के लिये, तपश्चर्या आदि में प्रयत्नशील बनने के लिये तथा गच्छ का नीतिपूर्वक पालन करने के लिये आलंबन का उपयोग करने वाला भी आत्मा मोक्ष को प्राप्त करता है ।।७७९ ।। -विवेचन अप्रतिबद्ध विहार = गुरु की आज्ञा से द्रव्य, क्षेत्र आदि के प्रतिबन्ध से रहित होकर, शरीरबल को देखते हुए सूत्रसम्मत, मासकल्पी विहार करना। इसके चार भेद हैं (i) द्रव्यत: अप्रतिबद्ध–'अमुक गाँव, नगर में जाकर बहुत से सम्पन्न श्रावकों को प्रतिबोध दूंगा' अथवा ऐसा करूँ कि 'अमुक श्रावक लोग मुझे छोड़कर दूसरों के भक्त न बन जायें।' इस प्रकार के प्रतिबंध से रहित होकर विहार करना। सुविधाभोगी बनकर एक स्थान में मुनि को नहीं रहना चाहिये । द्रव्यादि के प्रतिबंध से रहित मुनि का ही विहार सफल है। (ii) क्षेत्रत: अप्रतिबद्ध–प्रतिकूलता वाली वसति छोड़कर अनुकूलता वाली वसति में मुझे जाना चाहिये, ऐसी भावना से रहित होकर विहार करना। (iii) कालत: अप्रतिबद्ध-शरद्काल होने से अभी विहार करूँगा तो प्राकृतिक सौन्दर्य देखने को मिलेगा, ऐसी भावना न रखते हुए विहार करना। (iv) भावत: अप्रतिबद्ध-उस क्षेत्र में जाऊँगा तो मुझे स्निग्ध, मधुर आहार आदि मिलेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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