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________________ ४२६ क्योंकि इतनी दूर ही उचित है । (iii) कालतः - सूर्योदय के पश्चात् विहार करना । (iv) भावतः - उपयोग पूर्वक चलना । से सूक्ष्मजीव दृष्टिगत नहीं हो सकते अतः चार हाथ प्रमाण भूमि को देखकर चलना द्वार १०३-१०४ पूर्वोक्त दो विहारों के अतिरिक्त तीसरा विहार - जैसे एक या अनेक अगीतार्थों का विहार जिनाज्ञा संमत न होने से सर्वथा निषिद्ध है ॥ ७७०-७७१ ।। १०४ द्वार : अप्रतिबद्ध-विहार Jain Education International अप्पडिबद्धो असया गुरूवरसेण सव्वभावेसुं । मासाइविहारेणं विहरेज्ज जहोचियं नियमा ॥७७२ ॥ मुत्तूण माकप्पं अन्नो सुत्तंमि नत्थि उ विहारो । ता कहमाइग्गहणं कज्जे ऊणाइभावेणं ॥७७३ ॥ कालाइदोसओ जइ न दव्वओ एस कीरए नियमा । भावेण तहवि कीरइ संथारगवच्चयाईहिं ॥७७४ ॥ काऊण मासकप्पं तत्थेव ठियाण तीस मग्गसिरे । सालंबणाण जिट्ठोग्गहो य छम्मासिओ होइ ॥ ७७५ ॥ अह अस्थि पयवियारो चउपाडिवयंमि होइ निग्गमणं । अहवावि अनिंतस्स आरोवणं सुत्तनिद्दिट्टं ॥७७६ ॥ एगक्खेत्तनिवासी का लाइक्कंतचारिणो इवि । तहवि हु विसुद्धचरणा विसुद्ध आलंबणा जेण ॥७७७ ॥ सालंबणो पडतो अत्ताणं दुग्गमेऽवि धारेइ । इय सालंबणसेवी धारेइ जई असढभावं ॥ ७७८ ॥ काहं अछित्ति अदुवा अहिस्सं, तवोवहाणेसु य उज्जमिस्सं । गणं व नीइसु य सारइस्सं, सालंबसेवी समुवेइ मोक्खं ॥७७९ ॥ -गाथार्थ - अप्रतिबद्ध विहार - सभी पदार्थों के प्रति अनासक्तभाव रखते हुए, गुरु आज्ञापूर्वक, योग्य नियमानुसार मासकल्पादि रूप विहार करते हुए विचरण करना अप्रतिबद्ध विहार है ॥७७२ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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