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क्योंकि इतनी दूर ही उचित है ।
(iii) कालतः - सूर्योदय के पश्चात् विहार करना ।
(iv) भावतः - उपयोग पूर्वक चलना ।
से सूक्ष्मजीव दृष्टिगत नहीं हो सकते अतः चार हाथ प्रमाण भूमि को देखकर चलना
द्वार १०३-१०४
पूर्वोक्त दो विहारों के अतिरिक्त तीसरा विहार - जैसे एक या अनेक अगीतार्थों का विहार जिनाज्ञा संमत न होने से सर्वथा निषिद्ध है ॥ ७७०-७७१ ।।
१०४ द्वार :
अप्रतिबद्ध-विहार
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अप्पडिबद्धो असया गुरूवरसेण सव्वभावेसुं । मासाइविहारेणं विहरेज्ज जहोचियं नियमा ॥७७२ ॥ मुत्तूण माकप्पं अन्नो सुत्तंमि नत्थि उ विहारो । ता कहमाइग्गहणं कज्जे ऊणाइभावेणं ॥७७३ ॥ कालाइदोसओ जइ न दव्वओ एस कीरए नियमा । भावेण तहवि कीरइ संथारगवच्चयाईहिं ॥७७४ ॥ काऊण मासकप्पं तत्थेव ठियाण तीस मग्गसिरे । सालंबणाण जिट्ठोग्गहो य छम्मासिओ होइ ॥ ७७५ ॥ अह अस्थि पयवियारो चउपाडिवयंमि होइ निग्गमणं । अहवावि अनिंतस्स आरोवणं सुत्तनिद्दिट्टं ॥७७६ ॥ एगक्खेत्तनिवासी का लाइक्कंतचारिणो इवि । तहवि हु विसुद्धचरणा विसुद्ध आलंबणा जेण ॥७७७ ॥ सालंबणो पडतो अत्ताणं दुग्गमेऽवि धारेइ ।
इय सालंबणसेवी धारेइ जई असढभावं ॥ ७७८ ॥
काहं अछित्ति अदुवा अहिस्सं, तवोवहाणेसु य उज्जमिस्सं ।
गणं व नीइसु य सारइस्सं, सालंबसेवी समुवेइ मोक्खं ॥७७९ ॥ -गाथार्थ -
अप्रतिबद्ध विहार - सभी पदार्थों के प्रति अनासक्तभाव रखते हुए, गुरु आज्ञापूर्वक, योग्य नियमानुसार मासकल्पादि रूप विहार करते हुए विचरण करना अप्रतिबद्ध विहार है ॥७७२ ॥
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