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न-सारोद्धार
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निर्ग्रन्थता एक जीव को ५ बार प्राप्त होती है, क्योंकि क्षपक और उपशामक ही निर्ग्रन्थ होते
हैं ॥ ७६९ ॥
प्रवचन
१०३ द्वार :
गीयत्थो य विहारो बीओ गीयत्थमीसओ भणिओ । एतो तइयविहारो नाणुन्नाओ जिणवरेहिं ॥७७० ॥ दव्वओ चक्खुसा पेहे, जुगमित्तं तु खेत्तओ । कालओ जाव रीएज्जा, उवउत्तो य भावओ ॥७७१ ॥ -गाथार्थ
विहार स्वरूप - विहार दो प्रकार का है- १. गीतार्थ का विहार और २. गीतार्थ मिश्र विहार । इससे अन्य विहार जिनेश्वरों द्वारा निषिद्ध है ।।७७० ॥
द्रव्यतः चक्षु द्वारा देखकर चलना । क्षेत्रतः युगमात्र भूमि देखकर चलना । कालतः जब तक चले और भावतः सम्यक् उपयोगपूर्वक चलना । ऐसे चार प्रकार का विहार है ॥७७१ ॥
-विवेचन
विहार
↓
गीतार्थविहार (बहुश्रुत का विहार)
गीतार्थमिश्रविहार
(बहुश्रुत के साथ या उनकी निश्रा में रहकर विहार करना)
गीतार्थमिश्र के स्थान पर 'गीतार्थनिश्रित विहार' ऐसा भी पाठान्तर है । उसका अर्थ है गीतार्थ के आश्रय में रहकर विहार करना ।
विहार-स्वरूप
गीतार्थ विहार = उनका विचरण ।
=
कृत्य - अकृत्य के ज्ञाता, बहुश्रुत मुनि
पूर्वोक्त दोनों प्रकार का विहार द्रव्यादि के भेद से चार प्रकार का है
(i) द्रव्यत: दृष्टि से देखकर चलना ।
(ii) क्षेत्रतः - चार हाथ प्रमाण भूमि को देखकर चलना । अत्यन्त समीप में देखकर चलने से जीवरक्षा नहीं हो सकती तो चार हाथ से अधिक दूर तक देखकर चलने से भी जीव रक्षा नहीं होती
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