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________________ ४२० द्वार १०१ पत्तगधुयण वियारा थंडिल आवस्सयाईया ॥७६८ ॥ -गाथार्थचक्रवाल समाचारी-१. इच्छाकार, २. मिच्छाकार, ३. तथाकार, ४. आवश्यिकी, ५. नैषेधिकी, ६. आपृच्छा, ७. प्रतिपृच्छा, ८. छंदना, ९. निमंत्रणा और १०. उपसंपदा-ये संयमधर्म की कालविषयक दस सामाचारी हैं। इन दशों का स्वरूप आगे बताया जायेगा ॥७६०-७६१॥ कारणवश दूसरों की प्रार्थना करनी पड़े तब अथवा कोई साधु किसी का काम करना चाहे तब 'इच्छाकार' शब्द का प्रयोग अवश्य करे क्योंकि साधु को किसी पर भी बलात्कार करना नहीं कल्पता ।।७६२॥ संयमसाधना में तत्पर मुनि के द्वारा संयम विरुद्ध आचरण हो जाने पर अपराध बाध की स्थिति से अवश्य 'मिच्छामिदुक्कडं' देना चाहिये ।।७६३ ।। कल्प्य-अकल्प्य के ज्ञाता, पाँच महाव्रतों के पालक, संयम और तप से युक्त महापुरुषों के वचन को 'तहत्ति' कहकर स्वीकार करना ।।७६४॥ ___ आवश्यक कार्य हेतु बाहर जाते समय मुनियों को 'आवस्सहि' कहना चाहिये। बाहर से पुन: वसति में प्रवेश करते समय 'निस्सीहि' कहना चाहिये ।।७६५ ॥ कार्य करते समय पूछना आपृच्छा है। पूर्व निषिद्ध कार्य को करने हेतु पुन: पूछना प्रतिपृच्छा है। गौचरी लाने के बाद साधुओं को निमन्त्रित करना छंदना है। गौचरी जाते समय मुनिओं को गौचरी के लिये कहना निमन्त्रणा है ।।७६६ ॥ उपसंपदा तीन प्रकार की है—१. ज्ञान सम्बन्धी, २. दर्शन सम्बन्धी और ३. चारित्र सम्बन्धी। यह दशविध सामाचारी है। दशविध समाचारी अन्य प्रकार से भी है ।।७६७ ॥ १. प्रतिलेखना, २. प्रमार्जना, ३. भिक्षा, ४. ईर्यापथिकी, ५. आलोचना, ६. भोजन, ७. पात्रप्रक्षालन, ८. संज्ञात्याग, ९. स्थंडिल तथा १०. आवश्यक आदि ॥७६८ ॥ ___-विवेचन१. इच्छाकार-किसी दबाव के बिना इच्छा से काम करना इच्छाकार है। यद्यपि साधु अकारण किसी की याचना नहीं करता या किसी से अपना काम नहीं करवाता तथापि रोगादि कारण से स्वयं काम करने में अक्षम हो और किसी दूसरे से काम करवाना पड़े तो रत्नाधिक को छोड़कर सर्वप्रथम उसकी इच्छा जाने । उसे पूछे कि 'क्या तुम मेरा इतना काम करोगे?' अथवा निर्जरा का इच्छुक मुनि किसी अन्य का काम करना चाहे तो सर्वप्रथम उसे पूछे कि 'यदि आपकी इच्छा हो तो मैं आपका यह काम करना चाहता हूँ',' वह भी कहे 'आपकी इच्छा हो तो कर सकते हो।' इस प्रकार इच्छा शब्द के प्रयोगपूर्वक ही साधुओं को एक-दूसरे का काम करना या कराना कल्पता है। “तुम्हें यह काम करना पड़ेगा।" इस प्रकार बलात् किसी से कुछ कराना साधु को नहीं कल्पता । वे आत्मा विरल हैं जो बिना कहे किसी का काम करते हैं यह बताने के लिये यहाँ 'कोऽपि' ऐसा कहा है ॥ ७६२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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